Wednesday, September 11, 2013

काश तू दस्तक न देता

काश तू दस्तक न देता
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मैने कहा कौन है तू ?
उसने कहा मुसाफिर हूँ
पनाह चाहिए तेरे दिल में
मैने कहा जंग लग चुकी है
अब दिल के इन दरवाज़ों में
खुलते ही नहीं किसी के लिए
उसने कहा मेरी धीमी धीमी दस्तकें
तुझे इन बंद दरवाजों को खोलने पर
मजबूर कर ही देंगे --कुछ इस तरह
खुल ही गए बरसों से बंद दिल के दरवाजे
किये इश्क के वादे सूफियाना अंदाज़
खुद से बढ़ के चाहने का दावा
ता कयामत न बदलने का भरोसा
एक कश्ती के मुसाफिर बाँट ही लेते है
आखिर अपनी तन्हाई और रतजगे --
मैने पूछा वो कौन सी चाहत है
जो तुझे यहाँ लाई मुझ तक
मुझमें तो ऐसा कुछ भी नहीं
वो बोला --सब कुछ तो है जो
मेरी चाहत है तू मेरा ख्वाब है
अब तक कौन था तेरा बोल न ??
तेरा ख्याल बस शबनम सा पाक
और मै उड़ती रही बस उडती ही रही
बिन परों के परिदे की तरह उस की ओर
और वह किसी जादूगर की तरह
हावी हो गया होशोहवास पे --
कुछ इस तरह ज्यू वो शीशा हो
अपना अक्स देखती रही उस में
वो खुश तो मै मुस्कराई
वो रंजीदा हुआ तो तल्खी से भर गई मै
और फिर एक दिन वो बिन बताये
खो गया ठीक उसी तरह जैसे आया था
बिन बुलाये ----एक यकीन था उस पे
खुद से ज्यादा -बहुत खोजा आवाज़ भी दी
ढूंढते ख़ाक छानते देखा तो खड़ा था
भीड़ के बीच मुस्कराते हुए ---कोई गम न था
उसके चेहरे पर मुझसे बिछड़ने का ---
पर मै आजतक सोचती हूँ उसने ऐसा क्यूँ किया
कभी मिले तो बस इतना कहूँगी ---उससे -
काश तूने दस्तक न दी होती --ख़ैर कोई बात नहीं
तू खुश रह मेरा क्या मै तो संभल जाउंगी
पर तू जब बिखरेगा तो ? तेरा क्या होगा