Friday, April 25, 2014

गाँव का मिट्टी का घर


                                                               
                                                गाँव का मिट्टी का घर

पल पल की सारी बाते माँ अब भूल भूल जाती, 
लेकिन उस पुराने घर की याद बार बार चली आती... 

दूर गाँव में कच्चा घर था
फिर भी कितना अच्छा घर था 
लीप पोत कर उसे सजाती 
माटी की खुशबू थी आती 
 सच्चा प्यार वहां पलता था 
 मिट्टी का चूल्हा जलता था..... 


लकड़ी और कंडे जलते थे 
राखी से बर्तन मंजते थे 
थाली भर आटा गुदती 
अंगारों पर रोटी सिकती 
खाने को बिछता था पाटा 
 चक्की से पिसता था आटा..... 


शाम ढले फिर दिया बत्ती 
चिमनी,लालटेन थी जलती 
सभी काम खुद ही करते थे 
नल से पानी भरते थे 
पीट पीट ,कपडे धुलते 
फिर हम सब नहाने चलते..... 


ना था टी वी,ना ट्रांजिस्टर 
बातें करते साथ बैठ कर हम सुना पहाड़े रटते 
होम वर्क बस ये ही करते 
सुन्दर और सादगी वाला 
वो जीवन था बड़ा निराला..... 


वक़्त लगा फिर आगे बढ़ने 
हम गए नौकरी करने 
जहाँ कभी थी रेला पेली 
वह माँ,रह गयी अकेली 
पूरा जीवन जहाँ गुजारा 
ईंट ईंट चुन जिसे संवारा..... 


हम सब जहाँ ,हँसते गाते 
जिसमे बसी हुई है यादे 
सूना पड़ा हुआ है वो घर 
पर माँ का मन अटका उस पर 
आँसु बार बार चली आती 
बिये हुये दिन भुल ना पातीं..... 


पल पल की सारी बाते माँ अब भूल भूल जाती 
लेकिन उस पुराने घर की याद बार बार चली आती.....!!

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