कब तक धोखे और अत्याचार का शिकार होंगी महिलाएं
देश की राजधानी की बस में तेईस साल की युवती के साथ हुए सामूहिक बलात्कार
के खिलाफ उठे आन्दोलन की प्रतिक्रिया हर तरफ देखी गयी है। इस युवती के हक
में और साथ साथ ही बलात्कार के तमाम मामलों में पीड़िताओं को जल्द से जल्द
इन्साफ दिलाने के लिए देश के तमाम हिस्सों में भी प्रदर्शन हुए हैं। यह
सरगर्मी गली मुहल्ले में भी देखी गयी है जहां लोग लड़कियों-स्त्रियों की
स्थायी सुरक्षा के मुद्दे पर स्थायी समाधान किस तरह निकले इसे लेकर चिन्तित
दिखे हैं।
अक्सर बलात्कार की घटना के बाद पीड़िता को ही दोषी ठहराने की जिस रीति का
बोलबाला हमारे समाज में है, उसके विपरीत इस बार यह एक सकारात्मक बात दिखी
है कि लोग खुद कह रहे हैं कि सुरक्षा के लिए हम अपनी लड़कियों को घर में
कैद नहीं कर सकते, न ही हर सार्वजनिक स्थल पर या लड़की जहां जाए वहां
परिवारवालों की निगरानी में रख सकते हैं। आखिर लड़की होने का खामियाजा वे
कब तक भुगतती रहेंगी, इसलिए सुरक्षित समाज तो उन्हें चाहिए ही।
दूसरी तरफ, बलात्कार के मामलों में पुलिसिया जांच में बरती जानेवाली
सुस्ती, मुकदमों के बोझ के नाम पर ऐसे मामलों में देरी से होने वाले फैसले,
आदि सभी मामलों को लेकर लोगों का आक्रोश दिखाई दिया है। जानकारों के
मुताबिक इन विरोध प्रदर्शनों ने मथुरा बलात्कार काण्ड के खिलाफ हुए
देशव्यापी आन्दोलन की याद ताजा की है। (1978) मालूम हो कि मथुरा नामक
आदिवासी युवती के साथ पुलिस कस्टडी में हुए बलात्कार को लेकर सर्वोच्च
न्यायालय का जो अपमानजनक फैसला आया था, उसका जबरदस्त विरोध हुआ था और सरकार
को बलात्कार सम्बन्धी कानून में बदलाव करने पड़े थे।
आज महिलाएं अधिक सुरक्षित या कम सुरक्षित !
कहां तो आज यह हकीकत है कि महिलाएं घर से बाहर शिक्षा, रोजगार या अन्य
व्यवसाय के लिए अधिकाधिक तादाद में निकल रही हैं, कई राज्यों में हुकूमत संभाल रही
हैं, समाज के हर क्षेत्र में अपनी अलग छाप छोड़ रही हैं ; लेकिन अगर यह
पूछा जाए कि समय बीतने के साथ समूचे मुल्क का वातावरण महिलाओं के लिए अधिक
सुरक्षित हो रहा है या असुरक्षित तो तथ्य दूसरी कहानी बताते हैं।
इस घटना के दो दिन बाद ही गाजियाबाद के
विजयनगर डिवाइडर पर एक लड़की गम्भीर स्थिति में सुबह 5 बजे पुलिस को मिली।
लड़की को किसी वाहन से वहां फेंका गया था। उसके साथ भी बलात्कार हुआ था।
उधर इसी समय सिलीगुढ़ी के बागडोरा थाना क्षेत्र में एक 18 वर्षीय लड़की को
बलात्कार के बाद बलात्कारियों ने आग के हवाले कर दिया। इसी दौरान मुगलसराय,
उत्तर प्रदेश में 16 वर्षीय लड़की को अपने मामा द्वारा हवस का शिकार बनाने
या सुदूर दक्षिण के बंगलौर में एक जनरल स्टोर के मालिक द्वारा 14 वर्षीय
बच्ची के साथ किए अत्याचार की ख़बर आयी। मणिपुर में एक अभिनेत्री को सरेआम
प्रताडित करने के खिलाफ वहां की जनता किस तरह सड़कों पर है, और मामले को
सम्वेदनशीलता से निपटने के बजाय सरकार ने किस तरह दमन का सहारा लिया इसके
समाचार भी आए हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब
महिलाओं पर अत्याचार की एक के बाद एक सामने आयी घटनाओं के चलते हरियाणा
सूर्खियों में था। इन विभिन्न ख़बरों को पढ़ कर सहज अनुमान लगाया जा सकता
है कि वातावरण कितना दहशत भरा होता जा रहा है कि कोई लड़की सड़कों पर
निकलने से डरे या बाहर निकली अपनी बेटी की सुरक्षा की चिन्ता में माता पिता
परेशान रहा करें।
अगर हम नवम्बर 2011 में नेशनल क्राइम्स रेकार्ड ब्यूरो द्वारा प्रकाशित
आंकड़ों पर गौर करेंगे तो विचलित करनेवाली स्थिति बन सकती है। ब्यूरो के
मुताबिक विगत 40 सालों में महिलाओं के खिलाफ अत्याचारों की संख्या में 800
फीसदी इजाफा हुआ है, दूसरी तरफ इस दौरान दोषसिद्धि अर्थात अपराध साबित होने
की दर लगभग एक तिहाई घटी है। उदाहरण के लिए वर्ष 2010 में बलात्कार की
22,171 घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज हुई जिसमें दोषसिद्धि दर महज 26.6 थी।
स्त्रियों के साथ छेड़छाड़ (molestation) के 40,163 मामले जिसमें दोषसिद्धि
दर 29.7 फीसदी तो प्रताडना (harassment) के 9,961 मामले जिनमें दोषसिद्धि
दर 52 फीसदी।
मीडिया में यह समाचार भी छपा है कि देश के
विभिन्न महानगरों की 92 फीसदी महिलाएं अपने आप को असुरक्षित महसूस करती
हैं। वाणिज्य एवं उद्योग मण्डल (एसोचैम) के सामाजिक विकास संस्थान की ओर से
जारी रिपोर्ट से जुड़ा यह सर्वेक्षण दिल्ली, मुम्बई,
कोलकाता, बेंगलुरू, हैदराबाद, अहमदाबाद, पुणे, देहरादून सहित कई
शहरों में किया गया। रिपोर्ट में बताया गया है कि हर 40 मिनट में एक महिला
का अपहरण और दुष्कर्म होता है। शहर की सड़कों पर हर घंटे एक महिला शारीरिक
शोषण की शिकार होती है। हर 25 मिनट में छेड़छाड़ की घटना होती है। प्रश्न
उठता है कि स्त्रियों को इस असुरक्षा से मुक्ति कैसे और कब मिलेगी ? क्या
हर कोने पर पुलिस या अर्द्धसुरक्षा बल के जवान को खड़ा करके अर्थात एक
सैन्यीकृत समाज के निर्माण के जरिए हमें इससे राहत मिल सकती है ? फिर इस
पुलिसिया माहौल में नैतिकता के नाम पर लोगों के व्यक्तिगत अधिकारों का
कितने बड़े पैमाने पर उल्लंघन होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
फास्ट ट्रैक कोर्ट कब हकीकत बनेंगे !
अख़बारों का कहना है कि अचानक उठे इस आन्दोलन के चलते केन्द्र में सत्तासीन
कांग्रेस पार्टी के लिए भी नयी मुश्किलें पैदा की हैं। प्रदर्शनकारियों के
साथ ज्यादती के नाम पर चन्द पुलिसवालों को निलम्बित किया गया है, इस मामले
को फास्ट ट्रैक कोर्ट में ले जाने को लेकर सहमति जता दी है, सुप्रीम कोर्ट
के रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश जे. एस. वर्मा की अध्यक्षता में बलात्कार
सम्बन्धी कानूनों में बदलावों की सिफारिश के लिए एक कमेटी बिठा दी है। मगर
जनता का गुस्सा अभी बरकरार है।
वैसे अत्याचार की शिकार महिलाओं को न्याय दिलाने के मामले में किसी भी अन्य
सत्ताधारी पार्टी का रिकॉर्ड उजला नहीं हैं। उनके चिन्तन में भी पुरूषवादी
सोच हावी दिखती है। संसद में एक विपक्षी नेत्री ने
कहा कि ‘उसकी जिन्दगी मौत से भी बदतर हो चुकी है।’ यह कहते हुए उन्होंने
उस पितृसत्तात्मक मूल्य प्रणाली को मजबूत किया जो बलात्कार कराती है।
यह समझने की जरूरत है कि बलात्कार यौनउपभोग का मामला नहीं होता, वह अपमान
का मामला होता है, उसका मकसद बलात्कृत व्यक्ति को यह बताना होता है कि अब
चूंकि उसके साथ यौन अत्याचार हुआ है, इसलिए उसकी जिन्दगी जीने लायक नहीं
है। उसका मकसद होता है आप के शरीर, मन, जुबान, व्यवहार और जिस तरह आप अपनी
आंखें उठाते हैं, इन सभी पर नियंत्राण करना। इसमें सम्पत्ति और शरीर को
बराबर रखने की कोशिश होती है, जो पितृसत्ता की नींव होती है। जब कोई यह
कहता है कि एक बलात्कृत व्यक्ति, मान लें महिला, अपवित्रा हुई है, तो उसका
अर्थ होता है कि उसके साथ जो यौन हिंसा की गयी है, वह उसके व्यक्तित्व का
उल्लंघन है, जो किसी की ‘सम्पत्ति’ है।
इस घटना से जो आन्दोलन खड़ा हुआ, लोग बड़ी तादाद में सड़कों पर उतरे और
सरकार भी हरकत में आती दिखी तो लोग पूछ रहे हैं कि आखिर घटना घट जाने के
बाद सख्ती क्यों याद आती है ? अभी तक कानूनों को सख्त बना कर पूरी तरह अमल
का इन्तजाम क्यों नहीं हुआ और फास्ट ट्रैक कोर्ट को नीतिगत स्तर पर
स्वीकृति मिलने के बाद भी वह क्यों नहीं बन सका। इस घटना से उपजे जनाक्रोश
के दबाव में राजधानी की मुख्यमंत्री सुश्री
शीला दीक्षित ने हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिख कर अनुरोध किया
कि वे दिल्ली में फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की प्रक्रिया को तेज करे। गृहमंत्री सुशीलकुमार शिन्दे ने भी संसद के पटल पर कहा कि वह सुनिश्चित करेंगे कि उपरोक्त मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में हो।
महिला संगठनों तथा अन्य मानवाधिकार संगठनों से लगातार यह मांग होती रही है
कि बलात्कार मामलों की फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई अपवाद नहीं बल्कि नियम
बने। सरकार अगर दृढ इच्छाशक्ति दिखाए तो कैसे जल्द सुनवाई और अपराधियों को
सज़ा सम्भव है, इसका उदाहरण राजस्थान में मिलता है ; जहां एक विदेशी
पर्यटक के साथ हुए यौन अत्याचार के मामले में घटना के महज 15 दिन के अन्दर
सारी सुनवाई पूरी कर ली गयी थी और आरोपियों को सज़ा सुनायी गयी थी, तो
दूसरे एक मामले में एक सप्ताह के अन्दर बलात्कारियों के खिलाफ फैसला हो
चुका था। ऐसी त्वरित कार्रवाई अन्य सभी मामलों में क्यों सम्भव नहीं है
ताकि बलात्कार पीड़िता का न्याय व्यवस्था पर भरोसा बन सके और वह मामले को
भूल कर जिन्दगी में एक नया पन्ना पलट सके। आम तौर पर यही देखने में आता है
कि चाहे न्यायालयों में लम्बित मामलों के नाम पर, मामले की जांच में पुलिस
द्वारा बरती जानेवाली लापरवाही एवं विलम्ब के नाम पर फैसला आने में सालों
लग जाते हैं, तब तक पीड़िता की जिन्दगी का वह दुखद अध्याय ‘खुला’ ही रहता
है, उसे उससे मुक्ति नहीं मिल पाती है।
पुलिस इतनी महिलाविरोधी क्यों है ?
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब
‘तहलका’ पत्रिका ने एक स्टिंग आपरेशन किया था। इसका मकसद था यह जाना जाए
कि दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की पुलिस महिलाओं पर अत्याचार के
बारे में क्या सोचती है। छिपे कैमरे के सामने पत्रिका के रिपोर्टर से बात
करते हुए दिल्ली के विभिन्न थानों, गुड़गांव, नोएडा, गाजियाबाद एवं
फरीदाबाद के कुछ थानों में तैनात पुलिस अधिकारियों ने एक सुर से महिलाओं को
ही उन पर होने वाले अत्याचार के लिए जिम्मेदार ठहराया था। किसी ने उनके
कपड़े पहनने को लेकर आपत्ति दर्ज करायी थी तो किसी ने उनके अकेले यात्रा
करने में दोष ढूंढा था। किसी को भी पुलिस की अपनी कार्यप्रणाली में कमियां नहीं मिली थीं। अपने गिरेबां में झांकने की जरूरत उन्हें महसूस नहीं हुई थी।
अगर आज़ाद भारत की राजधानी की पुलिस इस ढंग की सोच रखती है तो हम बाकी मुल्क का अन्दाजा लगा सकते हैं।
यह भी पूछा जा रहा है कि थानों का जेण्डर बैलेन्स अर्थात वहां तैनात महिला
कर्मियों के अनुपात क्यों नहीं ठीक किया गया है ताकि वहां का वातावरण
अधिकाधिक महिलानुकूल अर्थात वूमेन फ्रेण्डली बन सके और लड़कियां-महिलाएं
आसानी से वहां अपनी शिकायतें लेकर जा सकें। मालूम हो कि आज तक राजधानी
दिल्ली की पुलिस में महिलाओं का प्रतिशत 5 फीसदी से बढ़ नहीं सका है।
कुछ समय पहले मुंबई पुलिस में तैनात महिला पुलिस कर्मियों के साथ सहयोगी
पुरूष कर्मियों के व्यवहार पर बातचीत चली थी। मुंबई की एक तेजतर्रार महिला
पुलिस अधीक्षक ने इसमें पहल ली थी। इसमें यह बात सामने आयी थी कि किस तरह
इन पुरूष सहकर्मियों का व्यवहार भी उन्हें असहज बनानेवाला होता है। वे उनके
सामने गाली गलौज करते हैं, महिलाओं को नीचा दिखानेवाले अपशब्दों का
इस्तेमाल करते हैं, यहां तक कि कई लोग उनके सामने ही अपने कपड़े बदलते हैं।
ऐसी पुलिस महिला अत्याचारों के मामलों को सुलझाने के बजाय किस तरह रफा दफा
कर देती होगी, इसका आसानी से आकलन किया जा सकता है।
वैसे हमें यहभी नहीं भूलना चाहिए कि जनान्दोलनों को दबाने के नाम पर, लोगों
के मनोबल को तोड़ने के लिए भी सरकारें पुलिस-सुरक्षा बलों के सहारे
आन्दोलनरत समुदायों की स्त्रियों को सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाती हैं।
याद करें कि किस तरह उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के लिए चले आन्दोलन में भी
मुजफ्फरनगर काण्ड हुआ था, जिसकी ठीक से जांच अभी तक नहीं हुई है।2002 में
गुजरात में भी अल्पसंख्यक समुदाय की तमाम महिलाओं को किस तरह यौन अत्याचार
का शिकार बनाया गया था, जिसमें भी किस तरह राज्य सरकार ने शह दी थी, यह बात
भी तमाम रिपोर्टों में आ चुकी है।वर्ष 2004 में मणिपुर की थांगजाम मनोरमा
नामक युवती को इसी तरह सुरक्षा बलों ने अत्याचार का शिकार बनाया और उसकी
हत्या कर दी थी। मणिपुर की कई अग्रणी महिलाओं द्वारा सुरक्षा बलों के इस
दमनात्मक रवैये के खिलाफ असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने किए गए ऐतिहासिक
प्रदर्शन की तस्वीरें सभी ने देखी होंगी। कश्मीर में 1991 में अंजाम दिए
गए कुन्नान पेशोरा बलात्कार काण्ड के दोषियों को अभी तक सज़ा नहीं हुई हैं,
जिसमें भी सुरक्षा बलों के जवान ही दोषी थे।
क्या बलात्कारी को फांसी देना समाधान है ?
महिलाओं पर होने वाली इस सबसे विकारग्रस्त हिंसा के समाधान के तौर पर तरह
तरह के सुझाव सामने आ रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि ऐसे बलात्कारियों
का बन्ध्याकरण किया जाए यानि उन्हें नपुंसक बनाने के प्रावधान के लिए कानून
बनाया जाए। कइयों ने बलात्कारियों के लिए मृत्युदण्ड, या फिर सार्वजनिक
रूपसे फांसी की सज़ा आदि की मांग की है।
मुद्दा यह है कि क्या पुरुषों के पौरुष खतम करने से दूसरे सम्भावित
बलात्कारियों को वाकई भय होगा ? यदि ऐसा होता तो मौत की सजा वाले अपराधो पर
काबू पाया गया होता। दरअसल मौजूदा कानून के तहत भी दोषियों की गिरफ्तारी
और सजा की दर काफी कम है। जितनी बड़ी संख्या में अपराध होता है उतनी बढ़ी
संख्या में न तो पीड़ित शिकायत के लिए पहुंचती हैं और न ही जो शिकायत करती
है उन्हें न्याय की गारन्टी होती है। इन दोनों का कारण हमारे यहां की
टेढ़ी और लम्बी न्यायिक प्रक्रियाएं हैं तथा सामाजिक दबाव और लोकलाज का भय
पीड़ितों को शिकायत करने से रोकता है।
अतएव पहला मुद्दा तो यह है कि बलात्कार जैसे अपराध के लिये पूरी न्यायिक
प्रक्रिया में तेजी लायी जाए तथा जांच के नाम पर पीड़ितों को फिरसे परेशान
करने वाले प्रावधानों को समाप्त किया जाए। मालूम हो कि अबतक बलात्कार की
पुष्टि के लिए मेड़िकल टेस्ट में ‘फिंगर टेस्ट’ का इस्तेमाल होता है। पिछले
दिनों इस प्रकार की जांच प्रक्रियाओं का
काफी विरोध हुआ था। इसके अलावा बलात्कार के जांच के सभी मामलों में डीएनए जांच को अनिवार्य बनाया जाए।
दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह विचार करने का है कि किसी भी सभ्य होते समाज
में सजा के मध्ययुगीन तरीकों को कैसे सही ठहराया जा सकता है। अपराधी का
अपराध निश्चित ही छोटा नहीं है लेकिन सभ्य समाज जब सोच-समझ और विचार कर के
सजा देगा तो वह सख्त तो हो सकता है लेकिन क्रूर और बर्बर नहीं। पहले के
समय में कई प्रकार के अपराधों के लिए हाथपैर , नाक, कान काट दिये जाते थे
या इसी प्रकार क्रूरता की जाती थी ताकि दहशत फैलाकर अपराध पर काबू पाया जा
सके। अब तो कई देशों ने अपने यहां मौत की सजा का प्रावधान भी समाव्त कर
दिया है। इसका अर्थ कतई यह नहीं है वहां अपराध करने की छूट है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बलात्कारियों का अंग भंग करना या उसे मार
ड़ालना समाधान नहीं है, दरअसल उम्रकैद की अवधि बढ़ायी जानी चाहिए। ऐसे
अपराधियों को जेल के अन्दर भी बैठाकर खिलाने के बजाय उनसे श्रम कराया जाना
चाहिये। सबसे प्रथम उनकी न्यूनतम सज़ा को सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
दूसरा महत्वपुर्ण मुद्दा यह है कि अपराध के बचाव का जिसमें अपराधी
प्रवृत्ति या व्यवहार का जन्म ही न हो । यानि लोग अधिकाधिक सभ्य ,संवेदनशील
तथा दूसरों का सम्मान करनेवाले बने। हर व्यक्ति की अधिकारों के प्रति यदि
चेतना बढ़ती है तथा महिला समुदाय को बराबरी मिलती और वह सशक्त होती है तो
उसके खिलाफ अपराध कम होंगे। पूरे समाज में चेतना और जागरूकता के साथ ही
न्यायिक सक्रियता और सख्ती तथा चुस्त पुलिस प्रशासन समस्या से बचाव एवम्
निराकरण के उपाय हो सकते हैं।
तीसरे, बलात्कार की घटना के बाद अगर राजनेता या पुलिस अधिकारी पीड़िताओं को
ही दोषी ठहराने वाले बयान देते हैं - जैसा कि इस घटना के बाद भी कुछ
नेताओं ने दिया है - तो ऐसे बयान देने वालों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
दिन को लेगें आजादी और रात को लेंगे आजादी
तय बात है कि अगर सभी सार्वजनिक दायरों में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा
मिले तो बड़ी संख्या में उनकी उपस्थिति पुरूषवर्चस्ववाले वातावरण को बदल
सकती है तथा अपराधी तत्वों पर अंकुश लगाने के लिए माहौल जल्द बन सकता है।
सार्वजनिक दायरा महिलाओं के लिए अधिकाधिक सुरक्षित कैसे बने, इसको लेकर
तमाम सवाल शासन प्रशासन से पूछे जा सकते हैं क्योंकि कानून एवं व्यवस्था की
जिम्मेदारी वही सम्भालने का दावा करते हैं। उदाहरण के लिए सड़कों की
संरचना या उनमें लाइट की व्यवस्था किस तरह स्त्रियों की मोबिलिटी को बाधित
कर सकती है, इसका भी हम अन्दाजा लगा सकते हैं।
सवाल सिर्फ सरकार को कटघरे में रखने का नहीं है, ऐसी घटनाएं जब जब सामने
आती हैं तो हम साथ साथ समाज और घर-आंगन को भी कटघरे में खड़ा पाते हैं,
जहां यह अपराधी प्रवृत्तियां जनमती हैं या पलती-बढ़ती हैं। इसके पहले के
सभी बलात्कारी किसी पेड़ से नहीं टपके थे। आखिर इन सबने यह कहां से सीखा कि
मौज मस्ती के लिए किसी के साथ जोर जबरदस्ती की जा सकती है, जैसे कि
राजधानी की घटना के आरोपियों ने पुलिस के सामने स्वीकार किया कि वे मस्ती
के मूड में थे। उन्होंने क्यों नहीं दूसरों का सम्मान करना सीखा और उनकी
नज़रों में वह लड़की उपभोग की वस्तु बन गयी ? कानून, थाने या अदालत की
भूमिका तो अपराध की घटना घटने के बाद बनती है लेकिन उससे पहले ऐसी मानसिकता
तैयार करने के लिए जिम्मेदार पूरा समाज है। याद रहे कि घर के अन्दर के
पालन पोषण से लेकर शैक्षणिक संस्थानों की सीख एवं फिल्में टीवी आदि वह सब
किसी इन्सान के व्यक्तित्व को तैयार करता है। जब कोई एक गुट या समूह एक साथ
किसी आपराधिक घटना में शामिल होता है तब उनमें से कोई एक भी प्रतिरोध
क्यों नहीं करता कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। निश्चित ही किसी दूसरे को
कोई नुकसान नहीं पहुंचे तथा खुद को काबू में रखना उनकी अपनी जिम्मेदारी है
यह सीख परिवार ठीक से नहीं दे रहा है। स्पष्ट है कि समाज युवाओं को समाज
में सृजनात्मक योगदान के बारे में प्रेरित नहीं कर रहा है।
आइये, आज जब स्त्रियों पर बढ़ते अत्याचारों को लेकर समूचे समाज में नयी
जागरूकता आयी है, सिर्फ युवतियां या महिलाएं ही नहीं बल्कि युवक भी सड़कों
पर बड़ी तादाद में उतरे हैं, तब हम यह संकल्प लें कि हम इस संघर्ष को यही
नहीं छोड़ देंगे। पीड़िता को न्याय सुनिश्चित करने के साथ साथ हम ऐसे तमाम
मामलों में इन्साफ की गारंटी करेंगे और अपनी आवाज़ यह कहते हुए बुलन्द
करेंगे कि ‘यौन अत्याचार अब कभी नहीं’ !
पूरी दुनिया में जब यह माना जा रहा हो कि मौजूदा दौर में महिलाएं तेजी से
तरक्की कर रही हैं, वह अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं, हर क्षेत्र
में वह पुरुषों के संग कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, तभी देश के अलग-अलग
हिस्सों में ऐसी घटनाएं भी सामने आ रही हैं जो न केवल इन दावों पर सवालिया
निशान लगा देती हैं, बल्कि सच्चाई की एक ऐसी तस्वीर पेश करती है जो हर आदमी
के रोंगटे खड़े कर देती है। यह घटनाएं मौजूदा समाज में महिलाओं की हालत के
बारे में सोचने केलिए विवश कर देती हैं। यह घटनाएं बताती हैं कि कैसे हर
कदम पर महिलाएं धोखे और अत्याचार का शिकार होती हैं। कैसे उनके अस्तित्व से
खिलवाड़ किया जा रहा है और उनकी अस्मिता को रौंदा जा रहा है?
पहली घटना
राजस्थान के दौसा जिले से है। यहां तीन निजी अस्पतालों ने मोटी कमाई के
चक्कर में पिछले वर्ष २२६ महिलाओं का गर्भाशय ही निकाल दिया। एक गैरसरकारी
संगठन अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत की ओर से दाखिल आरटीआई आवेदन में यह
खुलासा हुआ है। पंचायत के महासचिव दुर्गाप्रसाद ने दावा किया है कि
अस्पतालों ने इसके लिए हर मरीज से नकदी भी वसूली। ये अस्पताल सरकारी स्कीम
‘जननी सुरक्षा योजना’ के तहत प्रसव कराने के लिए मान्यता प्राप्त हैं। जिला
प्रशासन ने जांच के लिए दौसा की सीएमओ ओपी मीणा की अध्यक्षता में तीन
सदस्यीय समिति का गठन किया है। इतनी बड़ी संख्या में गर्भाशय तब निकाले गए
जब इनकी जरूरत नहीं थी। अस्पताल की ओर से मरीजों को डराया गया कि अगर
गर्भाशय नहीं निकाला गया तो मरीज के शरीर में इनफेक्शन फैलने का खतरा है।
दूसरी
घटना, गाजियाबाद जिले केमोदीनगर इलाके के सीकरी खुर्द में हुई। यहां
शनिवार को एक व्यक्ति ने इज्जत की खातिर एमबीए की पढ़ाई कर रही अपनी बेटी
का गला घोटने के बाद शव को फांसी के फंदे पर लटका दिया और खुद कोतवाली में
पहुंचकर समर्पण कर दिया। पिता में बेटी के प्रति नफरत की वजह यह थी कि उसके
दूसरे संप्रदाय के युवक से प्रेम संबंध थे। आरोपी के बेटे ने पिता पर बहन
की हत्या करने का आरोप लगाते हुए घटना की रिपोर्ट दर्ज कराई है।
तीसरी
घटना, बाराबंकी जिले के हैदरगढ़ थाना क्षेत्र के दतौली गांव की है। यहां
भूमि विवाद के चलते बदचलनी का आरोप लगाकर जेठ व चचेरे ससुर ने एक महिला को
पेड़ से बांधकर निर्ममता से पिटाई की। मां को बचाने आयी १४ वर्षीय पुत्री
की भी जमकर धुनाई कर दी। तमाशबीन बने ग्रामीणों की मौजूदगी में करीब तीन
घंटे तक अत्याचार का सिलसिला चला। बाद में पुलिस ने महिला को दबंगों के
चंगुल से मुक्त कराया और दो लोगों को गिरफ्तार किया।
चौथी घटना, अलीगढ़
की है। यहां-समस्या दो समाधान लो-जैसे कार्ड, पंफलेट छपवाकर एक कथित
तांत्रिक ने दर्जनभर से अधिक महिलाओं के लाखों के जेवर ठग लिए। बन्नादेवी
के रघुवीरपुरी (मसूदाबाद बस स्टैंड वाली गली) स्थित मार्केट में हुई इस
घटना के बाद महिलाओं ने हंगामा शुरू किया तो पुलिस ने तांत्रिक की
रिसेप्शनिस्ट को हिरासत में ले लिया है।
( फोटो गूगल सर्च से साभार )