Tuesday, January 15, 2013

कमजोर महिला नहीं ....दुराचारी ही है....

कमजोर महिला नहीं ....दुराचारी ही है....

"औरतें उठी नहीं तो जुल्म बढ़ता जाएगा...जुल्म करने वाला ओर सीनाजोर होता जाएगा..." ये लाइनें ज्यादातर महिलाओं ने समय-समय पर सुनी होगी...परंतु वास्तव में इसको दिल से अपनाने का प्रयास बहुत कम ने ही किया होगा? अन्यथा आज इस समाज की ये हालत नहीं होती कि आए दिन कोई न कोई पुरूष रूपी नरपिचाश कभी कहीं तो कभी कहीं किसी महिला को अपनी हवस का शिकार बनाकर अपनी मर्दानगी साबित करता....। दिल्ली में 16 दिसंबर को चलती बस में लड़की के साथ गैंगरेप हुआ, मप्र में एक सप्ताह में ही अलग-अलग घटनाओं में गैंग रेप की चार वारदात हुई, जिसमें जबलपुर में 18 दिसंबर को बालिका के साथ, कटनी में 17 दिसंबर को किशोरी के साथ, रीवा में 19 दिसंबर को एक बालिका के साथ और ग्वालियर में 12 दिसंबर को एक महिला के घर में घुसकर गैंग रेप हुआ। ये सिलसिला थम नहीं रहा, इससे पहले गुवाहाटी में इसी साल 2012 की 9 जुलाई को सरेआम सड़क पर एक लड़की के कुछ लड़के कपडे़ तार-तार करते रहे और करीब 50 से ज्यादा लोग तमाशबीन बने रहे, किसी तमाशबीन ने लड़कों को रोकने की कोशिश नहीं की। ये मात्र घटनाएं नहीं है बल्कि समाज का वो कुरूप चेहरा है जो महिला को सिर्फ इस्तेमाल की वस्तु समझता है।

इस समाज की इससे बढ़ी विडम्बना और शर्मनाक बात क्या होगी कि जिस महिला के गर्भ से ये दुनिया जन्मी है, उसी के साथ दुराचार, अत्याचार करके पुरूष अपनी मर्दानगी साबित करने की कोशिश करता आ रहा है। वर्षों से यही सिलसिला चला आ रहा है, कलेण्डर बदलते रहते है परंतु घटनाएं समाप्त नहीं हो रही। जब भी अचानक कोई वीभत्स घटना सामने आती है तो देश के कोने-कोने से हर वर्ग के लोग सड़कों पर विरोध और चर्चा के लिए निकल पड़ते हैं। मीडिया को भी कुछ दिन के लिए चैनल में खबरे चलाने या अखबार में खबर छापने के लिए मैटर मिल जाता है। दोषियों को कढ़ी सजा देने के लिए चर्चा चलती है, सरकार, पुलिस, अदालत और जनप्रतिनिधियों आदि की जिम्मेदारी तय करने की बात की जाती है, नए कानून बनाने की बात शुरू हो जाती है, कानून के पहलुओं पर बहस छिड़ती है. आखिरकार हफ्ते-पंद्रह दिन में सब मामला ठंडा हो जाता है। अखबार में छपी इन्हीं खबरों पर कहीं कोई मूंगफली तो कहीं कोई समोसा खाता मिल जाएगा। आखिरकार इस सबके पीछे रह जाती है वो पीड़ित महिला या लड़की, जो जब तक जिंदा रहती है तब तक हर दिन उस नासूर घटना की पीड़ा को सहन करती है। जो लोग घटना के वक्त उसके हमदर्द बने रहने का नाटक करते है वही बाद में बार-बार पीड़ित महिला को घटना की याद दिलाकर यही एहसास कराते हैं जैसे घटना के लिए वो महिला खुद दोषी रही होगी, जैसे महिला ने ही दरिंदे पुरुषों को आमंत्रित किया होगा रेप या गैंग रेप की घटना को अंजाम देने के लिए। समाज की प्रताड़ना से ही तंग आकर कई रेप पीड़ित लड़कियां और महिलाएं आत्महत्या तक कर लेती है।
मेरे मन में हमेशा इस तरह की घटनाएं सामने आने के बाद यही विचार आता है कि आखिरकार कब तक महिलाएं इसी तरह दुराचार-अत्याचार सहन करती रहेगी, कब तक हनुमानजी की तरह उनको अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं होगा, क्यों और कब तक वे अपनी मदद स्वयं न करके दूसरों की तरफ सहायता के लिए हाथ बढ़ाए रहेगी? वर्षो से इस पुरुष प्रधान समाज ने हर तरह से महिला को यही एहसास कराने की कोशिश की है कि वो कमजोर है, पुरुष की मदद के बिना नहीं रह सकती। क्या वास्तव में जिस दुर्गा-काली से पुरूष शक्ति का वरदान मांगता है वो कमजोर हो सकती है? मेरा मानना है कि नहीं, बिल्कुल नहीं। जिस नारी ने पुरूष को जन्म दिया आखिरकार वो कमजोर कैसे हो सकती है। जरूरत बस इस बात की है कि महिला अपनी आत्मरक्षा के लिए किस परिस्थिति और समय पर क्या किया जाना चाहिए, इस बात का ज्ञान अपनी चेतना में सदैव रखे, तभी समाज के कलंक रूपी दरिंदों में दुराचार का विचार आने के साथ ही उसके अंजाम को सोचकर भय पैदा हो सकता है! अब लगने लगा है कि विकसित और सभ्य होने का नाटक करने वाले इस समाज में महिलाओं को अपनी रक्षा खुद ही करनी होगी, क्योंकि पुलिस, अदालत, सरकार और जनप्रतिनिधि ही किसी लायक होते तो समाज की ये स्थिति नहीं होती। अगर दरिंदे अपराधियों में कानून का भय होता तो शायद अब तक समाज से अपराध ही समाप्त हो जाते। परंतु हमारे देश में कानूनी प्रक्रिया में इतने होल हैं कि अपराधी आसानी से ससम्मान बच निकलता है और पीड़ित ही समाज में शर्मशार सा होता नजर आता है। हमारे देश का कानून अपराधी को शरण देकर पीड़ित को ही कहता है कि वो सवित करे कि उसके साथ अपराध हुआ है।
सवाल यही उठता है कि आखिरकार समाज की ये हालत कैसे हो गई, कहां हमारी चूक होती जा रही है कि स्थिति दिनोंदिन बद से बदतर होती जा रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि बच्चों का पालन-पोषण करने की हमारी प्रक्रिया बहुत गलत है। पुरूष प्रधान समाज में लड़के और लड़कियों की परवरिश बहुत अलग तरह से की जाती है जहां लड़कों को सभी तरह की छूट मिलती है, वहीं लड़कियों को शुरू से ही दब कर, तथाकथित संस्कारों के नाम पर दब्बूपने में रहने और किसी से भी झगड़ा-फसाद न करने और शान्ति से अपने घर या स्कूल में रहने की समझाइश दी जाती है, लड़की की जिंदगी का लक्ष्य यही माना जाता है कि वे किसी भी तरह से पढ़-लिखकर अपनी ससुराल चली जाए। ससुराल में किसी भी तरह की प्रताड़ना होने पर भी वे वहीं रहें क्योंकि ससुराल से लड़की की अर्थी ही उठती है। इस तरह की बातें हमारे ग्रामीण क्या शहरी परिवेश तक में सुनने को मिल जाती है, वहीं लडकों को बचपन से ये कोई नहीं सिखाता कि अपनी बहन,माँ के साथ पड़ोस की दीदी का भी वो सम्मान करे।
माना कि आज भी देश की लगभग आधी महिलाएं साक्षर-जागरूक नहीं है परंतु जो कुछ साक्षर जागरूक है उन्हें ही शुरूआत करनी होगी। अपनी बेटी का पालन-पोषण करते समय उसकी चेतना में कभी भी ये बात न आने दे कि वो किसी भी तरह से कमजोर है। उसे संस्कारी बेटी बनाने के साथ ही जरुरत पड़ने पर तत्काल दुर्गा,काली,चंडी का रूप भी धारण करना सिखाना होगा, उसे सिखाना होगा कि यदि उसके साथ कोई बदतमीजी या दुराचार करने की कोशिश करता है तो उसका जबाव कैसे दिया जा सकता है। जिस मांस के लोथड़े का पुरूष हथियार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश करता है वही यौनांग उसकी सबसे बढ़ी कमजोरी भी है। यदि दुराचार के समय महिला की चेतना में यौनांग पर आक्रमण करने का विचार आ जाए तो दरिंदा पुरूष अपनी वाकी जिंदगी किसी महिला पर दुराचार करने लायक नहीं बचेगा। और न फिर वो महिला की श्रेणी में आएगा और न ही पुरूष की!
रेप या गैंग रेप एक ऐसा वीभत्स दुराचार है जिसमें सिर्फ महिला का शरीर आहत नहीं होता बल्कि उसका मन-मस्तिष्क सब हमेशा के लिए आहत हो जाते है। मरते दम तक वो महिला अपने साथ हुई उस घटना को शायद ही कभी भूल पाती हो। ऐसे में एक तरह से शरीर से जिंदा रहने के बाद भी ज्यादातर रेप पीड़ित महिलाएं एक तरह से मन से तो मर ही जाती है। फिर इस दुराचार को अंजाम देने वाले पुरूष को क्यों नहीं ऐसी सजा मिलनी चाहिए कि वो भी मरते दम तक उस दुराचार की घटना को याद करके दूसरे पुरूषों को कभी भी दुराचार न करने के लिए प्रेरित करे। भारत देश में कभी ऐसा कानून नहीं बन सकता कि दुराचार करने वाले पुरूष का बंध्याकरण कर दिया जाए या यौनांग काट दिया जाए। इसलिए यदि कोई दरिंदा किसी महिला के साथ रेप करे तो महिला को ही ये साहस करना चाहिए कि उस दरिंदे को कभी भी दुवारा दरिंदगी करने लायक न छोड़े।
बहुत लोगों को इस तरह के विचारों  से गहरा झटका लगेगा। लेकिन अब वास्तविकता यही है कि बेटियों-लड़कियों को एहसास दिलाना होगा कि वे कमजोर नहीं है और उन्हें अपने साथ होने वाले दुराचार का जबाव देने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। आखिरकार सम्मानपूर्वक जिंदगी तभी हम बसर कर सकते है जब इस समाज में आधी आबादी के लिए कदम-कदम पर भय न हो, बल्कि दुराचार का विचार आने के साथ ही दरिंदगी की बीमार मानसिकता वाले पुरूष में अंजाम को सोचकर उसकी आत्मा कांप उठे! तभी लग सकता है अमानवीय दरिंदगी की घटनाओं पर अंकुश!

 

खुलकर बहने दो मुझे हवा की तरह…


खुलकर बहने दो मुझे हवा की तरह…

आज़ादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ कि नया साल रंगीन बल्बों की रंगीनियों से न निकलकर मोमबतियों की लौ से कई सवाल उठाता हुआ आया। दिल्ली से उठे तूफान ने देश को हिलाकर रख दिया। इस तूफान को दामिनी कहें या अमानत, निर्भया, वेदना या ज्योति कुछ भी कहें, वह स्वयं तो हमेशा के लिए सो गई लेकिन उसने सोये भारत को जगा दिया। सड़कों पर उतरे युवाओं ने यह सवाल भी किया कि आखिर कब तक हम औरत के सम्मान के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे? कब तक उसके लिए दोहरे मापदंड अपनाये जाते रहेंगे? वह कब तक पुरुष की मानसिकता का शिकार बनती रहेगी? दुष्कर्म की हजारों घटनाएं हर वर्ष होती हैं लेकिन वे हमारी राजनीति के नक्कारखाने में तूती की तरह खो जाती हैं। जितने दुष्कर्मों का पता चलता है, उससे कहीं ज्यादा पर मौन का ताला जड़ दिया जाता है। अब दिल्ली कांड ने नीचे से ऊपर तक सब को हिलाकर रख दिया है। यह विडम्बना ही है कि ऐसे समय जब नेतृत्वहीन लोग सड़कों पर उतरे तो सरकार में बैठे लोगों ने हतप्रभ कर देने वाली चुप्पी साध रखी थी। ऐसा पहली बार हुआ कि राजनीतिक मकसद के बगैर निहत्थे लोग सत्ता के दरवाजे पर पहुंच कर न्याय मांग रहे थे, महिलाओं के विरुद्ध बढ़ रहे अपराधों के प्रति आवाज़ उठा रहे थे। अब यदि बलात्कार और यौन-उत्पीडऩ से संबंधित कानूनों में या न्याय की प्रक्रिया में बदलाव के बारे में सोचा जा रहा है तो वह इसी दबाव का नतीजा है।
इतना ही नहीं, महिलाओं को लेकर लिखे और गाये जा रहे अश्लील गीतों पर जहां बवाल मचा हुआ है वहीं कुछ गीतकारों द्वारा लिखे गये गीत लोकप्रिय भी हो रहे हैं। इनमें से एक गीत प्रसून जोशी द्वारा लिखा गया है। विवाह के प्रति एक लड़की की आकांक्षाओं को व्यक्त करते हुए कहते हैं :-
…बाबुल इतनी अर्ज सुन लीजो,
 मुझे सुनार के घर न दीजो
 मुझे जेवर कभी न भाये ।
 मुझे राजा घर न दीजो
 मुझे राज न करना आये।
 मुझे लोहार के घर दीजो
 जो मोरी जंजीरें पिघलाये।
इसी तरह गायिका शुभा मुद्गल का गीत लोगों की ज़ुबान पर है :-
 दिल से निकली हूं रौशन दुआ की तरह
 खुलकर बहने दो मुझे हवा की तरह।
अभिनेता अमिताभ बच्चन की कविता ने भी बहुत दिलों को छुआ। लेकिन इन सब के बीच कुछ नेताओं के बयानों ने महिलाओं के प्रति अपनी बीमार मानसिकता दर्शा कर निराश भी किया। हरियाणा के एक पूर्व मंत्री अपनी एक महिला कर्मचारी की आत्महत्या के मुख्य आरोपी हैं लेकिन उनके समर्थन में उनके एक मित्र मंत्री का कहना था कि यह कोई बड़ी बात नहीं, आखिर वह उनकी नौकर ही तो थी। अब उन्हें कौन समझाये कि वह नौकर थी, कोई गुलाम नहीं। राष्ट्रपति के सांसद पुत्र ने तो यहां तक कह दिया कि मोमबत्तियां जलाकर प्रदर्शन करना एक फैशन हो गया है। ये महिलाएं सज-धज कर केवल फोटो ङ्क्षखचवाने आती हैं और उसके बाद डिस्को चली जाती हैं। उनके इस बयान पर उनकी बहन को देश से माफी मांगनी पड़ी। वैसे बहती हवा के रुख को देखते हुए उक्त नेता ने भी माफी मांगने में देरी नहीं की। कुछ नेताओं ने लड़कियों के पहरावे पर टिप्पणी की और कुछ ने उनके पुरुषों के साथ खुलकर बोलने पर। ऐसे में कोई इनसे कैसे समाज बदलने की उम्मीद कर सकता है?
एक ङ्क्षचतक ने लिखा है कि सत्ता में बैठे लोग नहीं देख पा रहे हैं कि देश की जनता के मौन क्रोध की स्थाई जमा राशि लगातार बढ़ती जा रही है। अब कोई लोहिया है, न जयप्रकाश। अब लोगों को किसी की जरूरत नहीं है। वे अपने आप उठ खड़े होते हैं। बस, ज़रा-सी ङ्क्षचगारी दिखनी चाहिए। उसे ज्वाला बनने में देर नहीं लगती। ऐसा नहीं है कि इस ज्वाला की तपन नेता महसूस नहीं कर रहे हैं। वे कर रहे हैं लेकिन मजबूर हैं। वे किसी ज्वाला में से कभी नहीं गुजरे। वे इतिहास के धक्के से ऊपर आये हैं। उन्हें जनता का धक्का ही धराशायी करेगा। कहा जाता है कि अत्याचार से बदतर अत्याचार को सहना होता है। लोग जब सहने से इनकार करने लगें तो उसे बेशक अच्छे दिनों का संकेत समझा जा सकता है। दुष्कर्म के खिलाफ सड़कों पर उतरे युवाओं में जो चेतना और संघर्ष भावना दिखी, उसमें हम ऐसे संकेत अवश्य तलाश सकते हैं।
समाज के साथ-साथ पुलिस को भी अपनी भूमिका बदलनी होगी। छेड़छाड़ के मामलों में पुलिस कर्मचारी किसी से पीछे नहीं। देश जब बदलाव के मोड़ पर है तब भी थानों में महिलाओं व लड़कियों से किये जा रहे यौन-शोषण के मामले सामने आ रहे हैं। इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या हो सकती है? कानून बदलने से या नये व सख्त कानून बनाने उचित हैं लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है उन्हें ईमानदारी से लागू करना और पुलिस को महिलाओं का सम्मान कैसे किया जाये, इसका प्रशिक्षण देना। मर्दानगी की परिभाषा भी बदलनी होगी। हिंसा मर्दानगी का प्रतीक नहीं है, यह बात अब समझनी होगी। वास्तव में यह दो मानसिकताओं की लड़ाई है। आशा करनी चाहिए आने वाले वक्त में महिलाएं सड़कों पर सुरक्षित होंगी।

कब तक शिकार होंगी महिलाएं

कब तक धोखे और अत्याचार का शिकार होंगी महिलाएं


देश की राजधानी की बस में तेईस साल की युवती के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के खिलाफ उठे आन्दोलन की प्रतिक्रिया हर तरफ देखी गयी है। इस युवती के हक में और साथ साथ ही बलात्कार के तमाम मामलों में पीड़िताओं को जल्द से जल्द इन्साफ दिलाने के लिए देश के तमाम हिस्सों में भी प्रदर्शन हुए हैं। यह सरगर्मी गली मुहल्ले में भी देखी गयी है जहां लोग लड़कियों-स्त्रियों की स्थायी सुरक्षा के मुद्दे पर स्थायी समाधान किस तरह निकले इसे लेकर चिन्तित दिखे हैं। 
अक्सर बलात्कार की घटना के बाद पीड़िता को ही दोषी ठहराने की जिस रीति का बोलबाला हमारे समाज में है, उसके विपरीत इस बार यह एक सकारात्मक बात दिखी है कि लोग खुद कह रहे हैं कि सुरक्षा के लिए हम अपनी लड़कियों को घर में कैद नहीं कर सकते, न ही हर सार्वजनिक स्थल पर या लड़की जहां जाए वहां परिवारवालों की निगरानी में रख सकते हैं। आखिर लड़की होने का खामियाजा वे कब तक भुगतती रहेंगी, इसलिए सुरक्षित समाज तो उन्हें चाहिए ही।
दूसरी तरफ, बलात्कार के मामलों में पुलिसिया जांच में बरती जानेवाली सुस्ती, मुकदमों के बोझ के नाम पर ऐसे मामलों में देरी से होने वाले फैसले, आदि सभी मामलों को लेकर लोगों का आक्रोश दिखाई दिया है। जानकारों के मुताबिक इन विरोध प्रदर्शनों ने मथुरा बलात्कार काण्ड के खिलाफ हुए देशव्यापी आन्दोलन की याद ताजा की है। (1978) मालूम हो कि मथुरा नामक आदिवासी युवती के साथ पुलिस कस्टडी में हुए बलात्कार को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का जो अपमानजनक फैसला आया था, उसका जबरदस्त विरोध हुआ था और सरकार को बलात्कार सम्बन्धी कानून में बदलाव करने पड़े थे।
आज महिलाएं अधिक सुरक्षित या कम सुरक्षित !
कहां तो आज यह हकीकत है कि महिलाएं घर से बाहर शिक्षा, रोजगार या अन्य व्यवसाय के लिए अधिकाधिक तादाद में निकल रही हैं, कई राज्यों में हुकूमत संभाल रही हैं, समाज के हर क्षेत्र में अपनी अलग छाप छोड़ रही हैं ; लेकिन अगर यह पूछा जाए कि समय बीतने के साथ समूचे मुल्क का वातावरण महिलाओं के लिए अधिक सुरक्षित हो रहा है या असुरक्षित तो तथ्य दूसरी कहानी बताते हैं। 
इस घटना के दो दिन बाद ही गाजियाबाद के विजयनगर डिवाइडर पर एक लड़की गम्भीर स्थिति में सुबह 5 बजे पुलिस को मिली। लड़की को किसी वाहन से वहां फेंका गया था। उसके साथ भी बलात्कार हुआ था। उधर इसी समय सिलीगुढ़ी के बागडोरा थाना क्षेत्र में एक 18 वर्षीय लड़की को बलात्कार के बाद बलात्कारियों ने आग के हवाले कर दिया। इसी दौरान मुगलसराय, उत्तर प्रदेश में 16 वर्षीय लड़की को अपने मामा द्वारा हवस का शिकार बनाने या सुदूर दक्षिण के बंगलौर में एक जनरल स्टोर के मालिक द्वारा 14 वर्षीय बच्ची के साथ किए अत्याचार की ख़बर आयी। मणिपुर में एक अभिनेत्री को सरेआम प्रताडित करने के खिलाफ वहां की जनता किस तरह सड़कों पर है, और मामले को सम्वेदनशीलता से निपटने के बजाय सरकार ने किस तरह दमन का सहारा लिया इसके समाचार भी आए हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब महिलाओं पर अत्याचार की एक के बाद एक सामने आयी घटनाओं के चलते हरियाणा सूर्खियों में था। इन विभिन्न ख़बरों को पढ़ कर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि वातावरण कितना दहशत भरा होता जा रहा है कि कोई लड़की सड़कों पर निकलने से डरे या बाहर निकली अपनी बेटी की सुरक्षा की चिन्ता में माता पिता परेशान रहा करें।
अगर हम नवम्बर 2011 में नेशनल क्राइम्स रेकार्ड ब्यूरो द्वारा प्रकाशित आंकड़ों पर गौर करेंगे तो विचलित करनेवाली स्थिति बन सकती है। ब्यूरो के मुताबिक विगत 40 सालों में महिलाओं के खिलाफ अत्याचारों की संख्या में 800 फीसदी इजाफा हुआ है, दूसरी तरफ इस दौरान दोषसिद्धि अर्थात अपराध साबित होने की दर लगभग एक तिहाई घटी है। उदाहरण के लिए वर्ष 2010 में बलात्कार की 22,171 घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज हुई जिसमें दोषसिद्धि दर महज 26.6 थी। स्त्रियों के साथ छेड़छाड़ (molestation) के 40,163 मामले जिसमें दोषसिद्धि दर 29.7 फीसदी तो प्रताडना (harassment) के 9,961 मामले जिनमें दोषसिद्धि दर 52 फीसदी। 
मीडिया में यह समाचार भी छपा है कि देश के विभिन्न महानगरों की 92 फीसदी महिलाएं अपने आप को असुरक्षित महसूस करती हैं। वाणिज्य एवं उद्योग मण्डल (एसोचैम) के सामाजिक विकास संस्थान की ओर से जारी रिपोर्ट से जुड़ा यह सर्वेक्षण दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, बेंगलुरू, हैदराबाद, अहमदाबाद, पुणे, देहरादून सहित कई शहरों में किया गया। रिपोर्ट में बताया गया है कि हर 40 मिनट में एक महिला का अपहरण और दुष्कर्म होता है। शहर की सड़कों पर हर घंटे एक महिला शारीरिक शोषण की शिकार होती है। हर 25 मिनट में छेड़छाड़ की घटना होती है। प्रश्न उठता है कि स्त्रियों को इस असुरक्षा से मुक्ति कैसे और कब मिलेगी ? क्या हर कोने पर पुलिस या अर्द्धसुरक्षा बल के जवान को खड़ा करके अर्थात एक सैन्यीकृत समाज के निर्माण के जरिए हमें इससे राहत मिल सकती है ? फिर इस पुलिसिया माहौल में नैतिकता के नाम पर लोगों के व्यक्तिगत अधिकारों का कितने बड़े पैमाने पर उल्लंघन होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। 
फास्ट ट्रैक कोर्ट कब हकीकत बनेंगे !
अख़बारों का कहना है कि अचानक उठे इस आन्दोलन के चलते केन्द्र में सत्तासीन कांग्रेस पार्टी के लिए भी नयी मुश्किलें पैदा की हैं। प्रदर्शनकारियों के साथ ज्यादती के नाम पर चन्द पुलिसवालों को निलम्बित किया गया है, इस मामले को फास्ट ट्रैक कोर्ट में ले जाने को लेकर सहमति जता दी है, सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश जे. एस. वर्मा की अध्यक्षता में बलात्कार सम्बन्धी कानूनों में बदलावों की सिफारिश के लिए एक कमेटी बिठा दी है। मगर जनता का गुस्सा अभी बरकरार है।
वैसे अत्याचार की शिकार महिलाओं को न्याय दिलाने के मामले में किसी भी अन्य सत्ताधारी पार्टी का रिकॉर्ड उजला नहीं हैं। उनके चिन्तन में भी पुरूषवादी सोच हावी दिखती है। संसद में एक विपक्षी नेत्री ने कहा कि ‘उसकी जिन्दगी मौत से भी बदतर हो चुकी है।’ यह कहते हुए उन्होंने उस पितृसत्तात्मक मूल्य प्रणाली को मजबूत किया जो बलात्कार कराती है।
यह समझने की जरूरत है कि बलात्कार यौनउपभोग का मामला नहीं होता, वह अपमान का मामला होता है, उसका मकसद बलात्कृत व्यक्ति को यह बताना होता है कि अब चूंकि उसके साथ यौन अत्याचार हुआ है, इसलिए उसकी जिन्दगी जीने लायक नहीं है। उसका मकसद होता है आप के शरीर, मन, जुबान, व्यवहार और जिस तरह आप अपनी आंखें उठाते हैं, इन सभी पर नियंत्राण करना। इसमें सम्पत्ति और शरीर को बराबर रखने की कोशिश होती है, जो पितृसत्ता की नींव होती है। जब कोई यह कहता है कि एक बलात्कृत व्यक्ति, मान लें महिला, अपवित्रा हुई है, तो उसका अर्थ होता है कि उसके साथ जो यौन हिंसा की गयी है, वह उसके व्यक्तित्व का उल्लंघन है, जो किसी की ‘सम्पत्ति’ है।
इस घटना से जो आन्दोलन खड़ा हुआ, लोग बड़ी तादाद में सड़कों पर उतरे और सरकार भी हरकत में आती दिखी तो लोग पूछ रहे हैं कि आखिर घटना घट जाने के बाद सख्ती क्यों याद आती है ? अभी तक कानूनों को सख्त बना कर पूरी तरह अमल का इन्तजाम क्यों नहीं हुआ और फास्ट ट्रैक कोर्ट को नीतिगत स्तर पर स्वीकृति मिलने के बाद भी वह क्यों नहीं बन सका। इस घटना से उपजे जनाक्रोश के दबाव में राजधानी की मुख्यमंत्री सुश्री शीला दीक्षित ने हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिख कर अनुरोध किया कि वे दिल्ली में फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की प्रक्रिया को तेज करे। गृहमंत्री सुशीलकुमार शिन्दे ने भी संसद के पटल पर कहा कि वह सुनिश्चित करेंगे कि उपरोक्त मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में हो।
महिला संगठनों तथा अन्य मानवाधिकार संगठनों से लगातार यह मांग होती रही है कि बलात्कार मामलों की फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई अपवाद नहीं बल्कि नियम बने। सरकार अगर दृढ इच्छाशक्ति दिखाए तो कैसे जल्द सुनवाई और अपराधियों को सज़ा सम्भव है, इसका उदाहरण राजस्थान में मिलता है ; जहां एक विदेशी पर्यटक के साथ हुए यौन अत्याचार के मामले में घटना के महज 15 दिन के अन्दर सारी सुनवाई पूरी कर ली गयी थी और आरोपियों को सज़ा सुनायी गयी थी, तो दूसरे एक मामले में एक सप्ताह के अन्दर बलात्कारियों के खिलाफ फैसला हो चुका था। ऐसी त्वरित कार्रवाई अन्य सभी मामलों में क्यों सम्भव नहीं है ताकि बलात्कार पीड़िता का न्याय व्यवस्था पर भरोसा बन सके और वह मामले को भूल कर जिन्दगी में एक नया पन्ना पलट सके। आम तौर पर यही देखने में आता है कि चाहे न्यायालयों में लम्बित मामलों के नाम पर, मामले की जांच में पुलिस द्वारा बरती जानेवाली लापरवाही एवं विलम्ब के नाम पर फैसला आने में सालों लग जाते हैं, तब तक पीड़िता की जिन्दगी का वह दुखद अध्याय ‘खुला’ ही रहता है, उसे उससे मुक्ति नहीं मिल पाती है।
पुलिस इतनी महिलाविरोधी क्यों है ?
अभी ज्यादा दिन नहीं हु जब ‘तहलका’ पत्रिका ने एक स्टिंग आपरेशन किया था। इसका मकसद था यह जाना जाए कि दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की पुलिस महिलाओं पर अत्याचार के बारे में क्या सोचती है। छिपे कैमरे के सामने पत्रिका के रिपोर्टर से बात करते हुए दिल्ली के विभिन्न थानों, गुड़गांव, नोएडा, गाजियाबाद एवं फरीदाबाद के कुछ थानों में तैनात पुलिस अधिकारियों ने एक सुर से महिलाओं को ही उन पर होने वाले अत्याचार के लिए जिम्मेदार ठहराया था। किसी ने उनके कपड़े पहनने को लेकर आपत्ति दर्ज करायी थी तो किसी ने उनके अकेले यात्रा करने में दोष ढूंढा था। किसी को भी पुलिस की अपनी कार्यप्रणाली में कमियां नहीं मिली थीं। अपने गिरेबां में झांकने की जरूरत उन्हें महसूस नहीं हुई थी।
अगर आज़ाद भारत की राजधानी की पुलिस इस ढंग की सोच रखती है तो हम बाकी मुल्क का अन्दाजा लगा सकते हैं। 
यह भी पूछा जा रहा है कि थानों का जेण्डर बैलेन्स अर्थात वहां तैनात महिला कर्मियों के अनुपात क्यों नहीं ठीक किया गया है ताकि वहां का वातावरण अधिकाधिक महिलानुकूल अर्थात वूमेन फ्रेण्डली बन सके और लड़कियां-महिलाएं आसानी से वहां अपनी शिकायतें लेकर जा सकें। मालूम हो कि आज तक राजधानी दिल्ली की पुलिस में महिलाओं  का प्रतिशत 5 फीसदी से बढ़ नहीं सका है। 
कुछ समय पहले मुंबई पुलिस में तैनात महिला पुलिस कर्मियों के साथ सहयोगी पुरूष कर्मियों के व्यवहार पर बातचीत चली थी। मुंबई की एक तेजतर्रार महिला पुलिस अधीक्षक ने इसमें पहल ली थी। इसमें यह बात सामने आयी थी कि किस तरह इन पुरूष सहकर्मियों का व्यवहार भी उन्हें असहज बनानेवाला होता है। वे उनके सामने गाली गलौज करते हैं, महिलाओं को नीचा दिखानेवाले अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं, यहां तक कि कई लोग उनके सामने ही अपने कपड़े बदलते हैं। ऐसी पुलिस महिला अत्याचारों के मामलों को सुलझाने के बजाय किस तरह रफा दफा कर देती होगी, इसका आसानी से आकलन किया जा सकता है।
वैसे हमें यहभी नहीं भूलना चाहिए कि जनान्दोलनों को दबाने के नाम पर, लोगों के मनोबल को तोड़ने के लिए भी सरकारें पुलिस-सुरक्षा बलों के सहारे आन्दोलनरत समुदायों की स्त्रियों को सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाती हैं। याद करें कि किस तरह उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के लिए चले आन्दोलन में भी मुजफ्फरनगर काण्ड हुआ था, जिसकी ठीक से जांच अभी तक नहीं हुई है।2002 में गुजरात में भी अल्पसंख्यक समुदाय की तमाम महिलाओं को किस तरह यौन अत्याचार का शिकार बनाया गया था, जिसमें भी किस तरह राज्य सरकार ने शह दी थी, यह बात भी तमाम रिपोर्टों में आ चुकी है।वर्ष 2004 में मणिपुर की थांगजाम मनोरमा नामक युवती को इसी तरह सुरक्षा बलों ने अत्याचार का शिकार बनाया और उसकी हत्या कर दी थी। मणिपुर की कई अग्रणी महिलाओं द्वारा सुरक्षा बलों के इस दमनात्मक रवैये के खिलाफ असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने किए गए ऐतिहासिक प्रदर्शन की तस्वीरें सभी ने देखी होंगी। कश्मीर में 1991 में अंजाम दिए गए कुन्नान पेशोरा बलात्कार काण्ड के दोषियों को अभी तक सज़ा नहीं हुई हैं, जिसमें भी सुरक्षा बलों के जवान ही दोषी थे।
क्या बलात्कारी को फांसी देना समाधान है ?
महिलाओं पर होने वाली इस सबसे विकारग्रस्त हिंसा के समाधान के तौर पर तरह तरह के सुझाव सामने आ रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि ऐसे बलात्कारियों का बन्ध्याकरण किया जाए यानि उन्हें नपुंसक बनाने के प्रावधान के लिए कानून बनाया जाए। कइयों ने बलात्कारियों के लिए मृत्युदण्ड, या फिर सार्वजनिक रूपसे फांसी की सज़ा आदि की मांग की है। 
मुद्दा यह है कि क्या पुरुषों के पौरुष खतम करने से दूसरे सम्भावित बलात्कारियों को वाकई भय होगा ? यदि ऐसा होता तो मौत की सजा वाले अपराधो पर काबू पाया गया होता। दरअसल मौजूदा कानून के तहत भी दोषियों की गिरफ्तारी और सजा की दर काफी कम है। जितनी बड़ी संख्या में अपराध होता है उतनी बढ़ी संख्या में न तो पीड़ित शिकायत के लिए पहुंचती हैं और न ही जो शिकायत करती है उन्हें  न्याय की गारन्टी होती है। इन दोनों का कारण हमारे यहां की टेढ़ी और लम्बी न्यायिक प्रक्रियाएं हैं तथा सामाजिक दबाव और लोकलाज का भय पीड़ितों को शिकायत करने से रोकता है। 
अतएव पहला मुद्दा तो यह है कि बलात्कार जैसे अपराध के लिये पूरी न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लायी जाए तथा जांच के नाम पर पीड़ितों को फिरसे परेशान करने वाले प्रावधानों को समाप्त किया जाए। मालूम हो कि अबतक बलात्कार की पुष्टि के लिए मेड़िकल टेस्ट में ‘फिंगर टेस्ट’ का इस्तेमाल होता है। पिछले दिनों इस प्रकार की जांच प्रक्रियाओं का 
काफी विरोध हुआ था। इसके अलावा बलात्कार के जांच के सभी मामलों में डीएनए जांच को अनिवार्य बनाया जाए। 
दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह विचार करने का है कि किसी भी सभ्य होते समाज में सजा के मध्ययुगीन तरीकों को कैसे सही ठहराया जा सकता है। अपराधी का अपराध निश्चित ही छोटा नहीं है लेकिन सभ्य समाज जब सोच-समझ और विचार कर के सजा देगा तो वह सख्त तो हो सकता है लेकिन क्रूर और बर्बर नहीं। पहले के समय में कई प्रकार के अपराधों के लिए हाथपैर , नाक, कान काट दिये जाते थे या इसी प्रकार क्रूरता की जाती थी ताकि दहशत फैलाकर अपराध पर काबू पाया जा सके। अब तो कई देशों ने अपने यहां मौत की सजा का प्रावधान भी समाव्त कर दिया है। इसका अर्थ कतई यह नहीं है वहां अपराध करने की छूट है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बलात्कारियों का अंग भंग करना या उसे मार ड़ालना समाधान नहीं है, दरअसल उम्रकैद की अवधि बढ़ायी जानी चाहिए। ऐसे अपराधियों को जेल के अन्दर भी बैठाकर खिलाने के बजाय उनसे श्रम कराया जाना चाहिये। सबसे प्रथम उनकी न्यूनतम सज़ा को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। 
दूसरा महत्वपुर्ण मुद्दा यह है कि अपराध के बचाव का जिसमें अपराधी प्रवृत्ति या व्यवहार का जन्म ही न हो । यानि लोग अधिकाधिक सभ्य ,संवेदनशील तथा दूसरों का सम्मान करनेवाले बने। हर व्यक्ति की अधिकारों के प्रति यदि चेतना बढ़ती है तथा महिला समुदाय को बराबरी मिलती और वह सशक्त होती है तो उसके खिलाफ अपराध कम होंगे। पूरे समाज में चेतना और जागरूकता के साथ ही न्यायिक सक्रियता और सख्ती तथा चुस्त पुलिस प्रशासन समस्या से बचाव एवम् निराकरण के उपाय हो सकते हैं। 
तीसरे, बलात्कार की घटना के बाद अगर राजनेता या पुलिस अधिकारी पीड़िताओं को ही दोषी ठहराने वाले बयान देते हैं - जैसा कि इस घटना के बाद भी कुछ नेताओं ने दिया है - तो ऐसे बयान देने वालों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
दिन को लेगें आजादी और रात को लेंगे आजादी
तय बात है कि अगर सभी सार्वजनिक दायरों में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा मिले तो बड़ी संख्या में उनकी उपस्थिति पुरूषवर्चस्ववाले वातावरण को बदल सकती है तथा अपराधी तत्वों पर अंकुश लगाने के लिए माहौल जल्द बन सकता है। सार्वजनिक दायरा महिलाओं के लिए अधिकाधिक सुरक्षित कैसे बने, इसको लेकर तमाम सवाल शासन प्रशासन से पूछे जा सकते हैं क्योंकि कानून एवं व्यवस्था की जिम्मेदारी वही सम्भालने का दावा करते हैं। उदाहरण के लिए सड़कों की संरचना या उनमें लाइट की व्यवस्था किस तरह स्त्रियों की मोबिलिटी को बाधित कर सकती है, इसका भी हम अन्दाजा लगा सकते हैं। 
सवाल सिर्फ सरकार को कटघरे में रखने का नहीं है, ऐसी घटनाएं जब जब सामने आती हैं तो हम साथ साथ समाज और घर-आंगन को भी कटघरे में खड़ा पाते हैं, जहां यह अपराधी प्रवृत्तियां जनमती हैं या पलती-बढ़ती हैं। इसके पहले के सभी बलात्कारी किसी पेड़ से नहीं टपके थे। आखिर इन सबने यह कहां से सीखा कि मौज मस्ती के लिए किसी के साथ जोर जबरदस्ती की जा सकती है, जैसे कि राजधानी की घटना के आरोपियों ने पुलिस के सामने स्वीकार किया कि वे मस्ती के मूड में थे। उन्होंने क्यों नहीं दूसरों का सम्मान करना सीखा और उनकी नज़रों में वह लड़की उपभोग की वस्तु बन गयी ? कानून, थाने या अदालत की भूमिका तो अपराध की घटना घटने के बाद बनती है लेकिन उससे पहले ऐसी मानसिकता तैयार करने के लिए जिम्मेदार पूरा समाज है। याद रहे कि घर के अन्दर के पालन पोषण से लेकर शैक्षणिक संस्थानों की सीख एवं फिल्में टीवी आदि वह सब किसी इन्सान के व्यक्तित्व को तैयार करता है। जब कोई एक गुट या समूह एक साथ किसी आपराधिक घटना में शामिल होता है तब उनमें से कोई एक भी प्रतिरोध क्यों नहीं करता कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। निश्चित ही किसी दूसरे को कोई नुकसान नहीं पहुंचे तथा खुद को काबू में रखना उनकी अपनी जिम्मेदारी है यह सीख परिवार ठीक से नहीं दे रहा है। स्पष्ट है कि समाज युवाओं को समाज में सृजनात्मक योगदान के बारे में प्रेरित नहीं कर रहा है।
आइये, आज जब स्त्रियों पर बढ़ते अत्याचारों को लेकर समूचे समाज में नयी जागरूकता आयी है, सिर्फ युवतियां या महिलाएं ही नहीं बल्कि युवक भी सड़कों पर बड़ी तादाद में उतरे हैं, तब हम यह संकल्प लें कि हम इस संघर्ष को यही नहीं छोड़ देंगे। पीड़िता को न्याय सुनिश्चित करने के साथ साथ हम ऐसे तमाम मामलों में इन्साफ की गारंटी करेंगे और अपनी आवाज़ यह कहते हुए बुलन्द करेंगे कि ‘यौन अत्याचार अब कभी नहीं’ !
 

पूरी दुनिया में जब यह माना जा रहा हो कि मौजूदा दौर में महिलाएं तेजी से तरक्की कर रही हैं, वह अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं, हर क्षेत्र में वह पुरुषों के संग कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, तभी देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसी घटनाएं भी सामने आ रही हैं जो न केवल इन दावों पर सवालिया निशान लगा देती हैं, बल्कि सच्चाई की एक ऐसी तस्वीर पेश करती है जो हर आदमी के रोंगटे खड़े कर देती है। यह घटनाएं मौजूदा समाज में महिलाओं की हालत के बारे में सोचने केलिए विवश कर देती हैं। यह घटनाएं बताती हैं कि कैसे हर कदम पर महिलाएं धोखे और अत्याचार का शिकार होती हैं। कैसे उनके अस्तित्व से खिलवाड़ किया जा रहा है और उनकी अस्मिता को रौंदा जा रहा है?
पहली घटना राजस्थान के दौसा जिले से है। यहां तीन निजी अस्पतालों ने मोटी कमाई के चक्कर में पिछले वर्ष २२६ महिलाओं का गर्भाशय ही निकाल दिया। एक गैरसरकारी संगठन अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत की ओर से दाखिल आरटीआई आवेदन में यह खुलासा हुआ है। पंचायत के महासचिव दुर्गाप्रसाद ने दावा किया है कि अस्पतालों ने इसके लिए हर मरीज से नकदी भी वसूली। ये अस्पताल सरकारी स्कीम ‘जननी सुरक्षा योजना’ के तहत प्रसव कराने के लिए मान्यता प्राप्त हैं। जिला प्रशासन ने जांच के लिए दौसा की सीएमओ ओपी मीणा की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति का गठन किया है। इतनी बड़ी संख्या में गर्भाशय तब निकाले गए जब इनकी जरूरत नहीं थी। अस्पताल की ओर से मरीजों को डराया गया कि अगर गर्भाशय नहीं निकाला गया तो मरीज के शरीर में इनफेक्शन फैलने का खतरा है।
दूसरी घटना, गाजियाबाद जिले केमोदीनगर इलाके के सीकरी खुर्द में हुई। यहां शनिवार को एक व्यक्ति ने इज्जत की खातिर एमबीए की पढ़ाई कर रही अपनी बेटी का गला घोटने के बाद शव को फांसी के फंदे पर लटका दिया और खुद कोतवाली में पहुंचकर समर्पण कर दिया। पिता में बेटी के प्रति नफरत की वजह यह थी कि उसके दूसरे संप्रदाय के युवक से प्रेम संबंध थे। आरोपी के बेटे ने पिता पर बहन की हत्या करने का आरोप लगाते हुए घटना की रिपोर्ट दर्ज कराई है।
तीसरी घटना, बाराबंकी जिले के हैदरगढ़ थाना क्षेत्र के दतौली गांव की है। यहां भूमि विवाद के चलते बदचलनी का आरोप लगाकर जेठ व चचेरे ससुर ने एक महिला को पेड़ से बांधकर निर्ममता से पिटाई की। मां को बचाने आयी १४ वर्षीय पुत्री की भी जमकर धुनाई कर दी। तमाशबीन बने ग्रामीणों की मौजूदगी में करीब तीन घंटे तक अत्याचार का सिलसिला चला। बाद में पुलिस ने महिला को दबंगों के चंगुल से मुक्त कराया और दो लोगों को गिरफ्तार किया।
चौथी घटना, अलीगढ़ की है। यहां-समस्या दो समाधान लो-जैसे कार्ड, पंफलेट छपवाकर एक कथित तांत्रिक ने दर्जनभर से अधिक महिलाओं के लाखों के जेवर ठग लिए। बन्नादेवी के रघुवीरपुरी (मसूदाबाद बस स्टैंड वाली गली) स्थित मार्केट में हुई इस घटना के बाद महिलाओं ने हंगामा शुरू किया तो पुलिस ने तांत्रिक की रिसेप्शनिस्ट को हिरासत में ले लिया है।
( फोटो गूगल सर्च से साभार )

रिश्तो की अहमियत


एक प्रेमी और प्रेमिका शादी के पहले आपस में बहुत प्यार करते थे।
थोड़ी नोक झोक उनमें होती रहती थी।
फिर प्यार से मान जाते थे वे।
शादी के बाद तो उनमें हर छोटी- मोटी बात को लेकर नोक- झोक होती थी।

कई कई दिन तक उनमें बातचित बन्द रहती थी।
आज दोनो की सालगिरह थी।लेकिन लड़की ने जानबूझ कर नहीं बताया।
वो देखना चाहती थी की उसके पति को याद है की नहीं।

पर आज पति सुबह ही उठा और नहा धो कर जल्दी ही बाहर चला गया।
बिवि रुआँसी हो गई।
थोड़ी देर बाद दरवाजे पर घण्टी बजी,वो दरवाजा खोली।

देखा पति गुलदस्ते और उपहारो के साथ एनिवर्सरि सरप्राईज लाया था।
उसने उपहार लेकर पति को गले से लगा लिया फिर पति घर के अन्दर चला गया।
तभी बिवि के मोबाईल पे पुलिस वाले का कॉल आया की,
उसके पति की लाश मिलि है।उसके पति का एक्सिडेंट हो चूका है।

वो सोचने लगी की उसका पति अभी तो गिफ्ट देकर अन्दर ही गया है।
फिर उसे वो बात याद आ गई जो उसने सुना था की मरने के बाद अन्तिम इच्छा पूरी करने के लिये इंसान कीआत्मा एक बार आती है।

वो दहाड़ मार के रोते हुये कमरे में गई।
सच में उसका पति वहाँ पर नहिं था।
वो रोने लगी उसे अपने किये गये सारे नोक झोंक याद आने लगे।

वो चिल्लाने लगी प्लीज कमबैक,प्लीज कमबैक। मैं कभी नहीं लड़ुँगी।
तभी बाथरूम से उसका पति निकला और रोने का कारण पूछा।

बिवि उसके सीने से लिपट गई और रोने लगी फिर सारी बात बताई।

तब पति ने बताया की आज सुबह उसका पर्स चोरी हो गया था।

।।ऐसे ही जिन्दगी में कई
अहम रिश्ते और दोस्ती होते है, जिनका महत्व हमें तब समझ आता है।जब वो नहीं होते।

प्यार बाँटिये नफरत कहाँ तक ढ़ो पायेंगे।

रिश्तो की अहमियत को समझिये।।।।