Friday, August 26, 2011

दीपावली

जिंदगी आपकी खुशियों से भरी रहे , दीपावली पर हमारी यही शुभकामना

Wednesday, August 17, 2011

माँ


माँ शब्द दिल से कहते ही मानों हमारा सारे दुःख दूर हो जाते है |
मानों हमें दुनिया का सुख मिल जाता है !"माँ " हमें सबसे जयादा
प्यार करती है ||
माँ घर मे सबसे पहले उठती है /सबके लिय खाना आदि बनाती है /
सबके जरुरत का ध्यान रखती है/समय समय पर सब का काम करती है
माँ प्यार , दया और ममता की मूर्ति है ! माँ कभी अपने कर्तब्यो
से मुह नाहे मोड़ती |वह घर मे सबको मिलकर रहना है |बच्चो के सुख
को ही अपना सुख मानतीहै |वह कभी किसी से गुस्सा नही करती |
कोई गलत बात बोले तो भी चुप हीरहती है |फिर भी उसका भला ही चाहती है|
हमने भगवान को नही देखा |पर हम अपनी माँ में ही भगवान को देखसकते ह''

दरिया में सफीने से











परछाइयों से इस कदर हम आज डर गए |
दरिया में सफीने से हम खुद ही उतर गए ||
कुछ और नहीं ज़ब्त की छतरी क़े सहारे |
अँधेरे थे तूफां में हम घर से निकल गए ||
जो वक़्त ने कही वो नसीहत की बात थी |
उतरे जो आसमान से फरिस्ते बदल गए ||
मौसम क़े उसूलों में भी बदलाव आ गए |
बेरंग बारिशों क़े महीने गुज़र गए ||
किस्मत ने हाथ देख कर आँखें तरेर लीं |
अरमान हिकारत क़े जहर पी क़े मर गए ||
सीने में उस नादान की गोयाईयाँ तो हैं |
मासूम सा दिल था हम जिससे बिछड़ गए ||
अफसाने सुनाते थे जो पाकीज़ा किनारे |
तूफां-ए-हवादिस से किनारे दहल गए ||
लगता है तेरे लफ्ज़ भी खामोश हो गए |
क्या अज़ाब क़े झोंके गुज़र गए ||

परिंदा आसमां को


 
 एक पपीहा प्यासा रहकर, बारिशों का दौर देखा ;
रोशनी में घुट गया, दीपक बुझा कर आ गया |
 

 

शाइस्तगी अंदाज में, शोहरत का ताज है नहीं ;
ताबीर से अनजान था, तस्दीक कर के आ गया |
  


 




 




लिखना जो सीखा कभी, तो कागजो की किल्लते ;
दिल क़े कोरे पात पर, मैं ग़ज़ल लिख कर आ गया |
छूने को परिंदा आसमां को, पर कटा कर आ गया;
परवर दिगार ए शान में, मैं सर झुका कर आ गया |

Khusiram Verma




परछाइयों से इस कदर हम आज डर गए |
दरिया में सफीने से हम खुद ही उतर गए ||
कुछ और नहीं ज़ब्त की छतरी क़े सहारे |
अँधेरे थे तूफां में हम घर से निकल गए ||
जो वक़्त ने कही वो नसीहत की बात थी |
उतरे जो आसमान से फरिस्ते बदल गए ||
मौसम क़े उसूलों में भी बदलाव आ गए |
बेरंग बारिशों क़े महीने गुज़र गए ||
किस्मत ने हाथ देख कर आँखें तरेर लीं |
अरमान हिकारत क़े जहर पी क़े मर गए ||
सीने में उस नादान की गोयाईयाँ तो हैं |
मासूम सा दिल था हम जिससे बिछड़ गए ||
अफसाने सुनाते थे जो पाकीज़ा किनारे |
तूफां-ए-हवादिस से किनारे दहल गए ||
लगता है तेरे लफ्ज़ भी खामोश हो गए |
‘शैलेश’ क्या अज़ाब क़े झोंके गुज़र गए ||

लखनऊ


मुस्कुराइये कि आप लखनऊ मे हैं -
यह पंक्ति लखनऊ मे कई स्थानों पर लिखी मिल जाती है।















लखनऊ उस क्ष्रेत्र मे स्थित है जिसे ऐतिहासिक रूप से अवध">अवध क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। लखनऊ हमेशा से एक बहुसांस्कृतिक शहर रहा है। यहाँ के शिया">शिया नवाबों द्वारा शिष्टाचार, खूबसूरत उद्यानों, कविता, संगीत, और बढ़िया व्यंजनों को हमेशा संरक्षण दिया गया। लखनऊ को नवाबों के शहर के रूप में भी जाना जाता है। [2] इसे पूर्व की स्वर्ण नगर (गोल्डन सिटी) और शिराज-ए-हिंद के रूप में जाना जाता है।[3] आज का लखनऊ एक जीवंत शहर है जिसमे एक आर्थिक विकास दिखता है और यह भारत के तेजी से बढ़ रहे गैर-महानगरों के शीर्ष पंद्रह में से एक है।

दाग


समुन्दर में तूफानों को उठते हुए देखा,
नदी तालों को भी उफनाते हुए देखा,
अश्क से दामन को भिगोते हुए देखा,
पर उस पर लगे दाग को मिटते नहीं देखा.

जिंदगी को जिन्दादिली से जीते देखा,
मौत को भी हंस कर गले लगाते देखा,
जिंदगी से मौत की टकराहट देखा,
पर जिंदगी व मौत को साथ निभाते नहीं देखा.

दोस्त को दुश्मन के गले लगते देखा,
पीठ में छुरा उन्हें भोंकते देखा,
गम के अंधेरों में दोनों को सिसकते देखा,
नदी के दो पाटों की तरह दिल को मिलते नहीं देखा.

चाँद तारों को जमीन पर उतरते देखा,
पंख परवाजों को आसमान को छूते देखा ,
धरती में ही स्वर्ग कहीं बनते हुए देखा,
अम्बर को धारा से मिलते नहीं देखा.

हमने बचपन भी देखा पचपन भी देखा,
बीती हुयी जिंदगानी देखा,
बहती हुयी रवानी देखा,
पर कहते हैं जिसे किस्मत उसको ही नहीं देखा.

मज़ार


आये थे मज़ार पर वो, दुनियां बदल जाने के बाद। सर झुकाया भी तो, हमारे गुज़र जाने के बाद। अरमां ये थे रू-ब-रू हो, कुछ तो कह देते । बुदबुदाए भी आखिर तो , दम निकल जाने के बाद।



ऐसा भी कर देते हैं लोग


जब कुछ मिलता नही चर्चा मे बने रहने को |
मासूम से इश्क को फसाद बना देते है लोग ||

जिसको पाने में तमाम उम्र लग जाती है |
उसे पल भर में ही खाक बना देते है लोग ||

बेपनाह प्यार का दावा करते है जिससे|
गुजर जाने पे चंद लम्हों मे भुला देते है लोग ||

समझाती हूँ अक्सर अपने इस नादां दिल को |
मोहब्बत की आड में सब कुछ चुरा लेते है लोग||

तनहा रहना भी खटकता है जमाने के ठेकेदारों को |
और दामन थाम लो तो शोर मचा देते है लोग ||

सब कुछ लूट कर भी जब जी नही भरता |
पलकों में सजे ख्वाब तक जला देते है लोग||

इसी को प्यार कहते हैं..

 नज़र मुझसे मिलाती हो तो तुम शरमा-सी जाती हो
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।
 तुम्हारे प्यार का ऐसे हमें इज़हार मिलता है
हमारा नाम सुनते ही तुम्हारा रंग खिलता है
और फिर साज़-ए-दिल पे तुम हमारे गीत गाती हो।
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।
 जबाँ ख़ामोश है लेकिन निग़ाहें बात करती हैं
अदाएँ लाख भी रोको अदाएँ बात करती हैं।
नज़र नीची किए दाँतों में ____ को दबाती हो।
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।
 तुम्हारे घर में जब आऊँ तो छुप जाती हो परदे में
मुझे जब देख ना पाओ तो घबराती हो परदे में
ख़ुद ही चिलमन उठा कर फिर इशारों से बुलाती हो।
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।

छुपाने से मेरी जानम कहीं क्या प्यार छुपता है
ये ऐसा मुश्क है ख़ुशबू हमेशा देता रहता है।
तुम तो सब जानती हो फिर भी क्यों मुझको सताती हो?
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।