Tuesday, August 20, 2013

नुमाइश

हमारी बरबादी की नुमाइश हो रही,
किस्मत हम से रुठी और सो रही।
    लोग कहते रहे तुम पत्थर हो मगर,
    इसी पत्थर की तलब मुझ को रही।
कौन शामिल है दुख में किसी के,
रिश्ते की मिठास दिलों से खो रही।
    उम्र भर जलता रहा मु$फलिसी में,
    कम हमेशा मेरी दौलत की लौ रही।
जीवन मेरा सूना-सूना औ बंजर सा,
जि़ंदगी हंसते हुए मुझ को ढो रही।
    बहुएं घर में होकर भी देखो जरा,
    बूढ़ी अम्मा अपनी ही रोटी पो रही।
कहां करती है वैैर किसी से गंगा,
खुशी-खुशी सब के पांव धो रही।
    टूट कर बिखरे ख्वाब मेरे ‘अंशुल’,
    थकी उंगलियां फिर से सपने बो रही।

परिन्दा





वो परिन्दा दम्भ पाले, है बड़े उल्लास में।
दूसरों के पंख बांधे उड़ रहा आकाश में॥
खून के आंसू रुलायी जा रही है भावना,
हादसे ही जन्म लेते आजकल विश्वास में।
देखिए कब दिन फिरें दीपावली के, दोस्तो!
तिमिर ने कब्जा जमाया ज्योति के आवास में।
मोल हंसने का मुझे रो-रो अदा करना पड़ा,
आंसुओं की जीवनी है, दर्द के इतिहास में।
सिर्फ अपनी त्रासदी की क्या करें चर्चा यहां,
जब सदी पूरी की पूरी जा रही संत्रास में।
राजसी सुख त्यागने का तो तभी औचित्य है,
जी सके जब राम जैसी जि़ंदगी वनवास में।
है त$काज़ा वक्त का, कोई $गज़ल ऐसी कहो!
प्राण फिर से भर सके जो टूटते विश्वास में।