Tuesday, August 20, 2013

नुमाइश

हमारी बरबादी की नुमाइश हो रही,
किस्मत हम से रुठी और सो रही।
    लोग कहते रहे तुम पत्थर हो मगर,
    इसी पत्थर की तलब मुझ को रही।
कौन शामिल है दुख में किसी के,
रिश्ते की मिठास दिलों से खो रही।
    उम्र भर जलता रहा मु$फलिसी में,
    कम हमेशा मेरी दौलत की लौ रही।
जीवन मेरा सूना-सूना औ बंजर सा,
जि़ंदगी हंसते हुए मुझ को ढो रही।
    बहुएं घर में होकर भी देखो जरा,
    बूढ़ी अम्मा अपनी ही रोटी पो रही।
कहां करती है वैैर किसी से गंगा,
खुशी-खुशी सब के पांव धो रही।
    टूट कर बिखरे ख्वाब मेरे ‘अंशुल’,
    थकी उंगलियां फिर से सपने बो रही।

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