खुलकर बहने दो मुझे हवा की तरह…
आज़ादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ कि नया साल रंगीन बल्बों की रंगीनियों से न
निकलकर मोमबतियों की लौ से कई सवाल उठाता हुआ आया। दिल्ली से उठे तूफान ने
देश को हिलाकर रख दिया। इस तूफान को दामिनी कहें या अमानत, निर्भया, वेदना
या ज्योति कुछ भी कहें, वह स्वयं तो हमेशा के लिए सो गई लेकिन उसने सोये
भारत को जगा दिया। सड़कों पर उतरे युवाओं ने यह सवाल भी किया कि आखिर कब तक
हम औरत के सम्मान के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे? कब तक उसके लिए दोहरे
मापदंड अपनाये जाते रहेंगे? वह कब तक पुरुष की मानसिकता का शिकार बनती
रहेगी? दुष्कर्म की हजारों घटनाएं हर वर्ष होती हैं लेकिन वे हमारी राजनीति
के नक्कारखाने में तूती की तरह खो जाती हैं। जितने दुष्कर्मों का पता चलता
है, उससे कहीं ज्यादा पर मौन का ताला जड़ दिया जाता है। अब दिल्ली कांड ने
नीचे से ऊपर तक सब को हिलाकर रख दिया है। यह विडम्बना ही है कि ऐसे समय जब
नेतृत्वहीन लोग सड़कों पर उतरे तो सरकार में बैठे लोगों ने हतप्रभ कर देने
वाली चुप्पी साध रखी थी। ऐसा पहली बार हुआ कि राजनीतिक मकसद के बगैर
निहत्थे लोग सत्ता के दरवाजे पर पहुंच कर न्याय मांग रहे थे, महिलाओं के
विरुद्ध बढ़ रहे अपराधों के प्रति आवाज़ उठा रहे थे। अब यदि बलात्कार और
यौन-उत्पीडऩ से संबंधित कानूनों में या न्याय की प्रक्रिया में बदलाव के
बारे में सोचा जा रहा है तो वह इसी दबाव का नतीजा है।
इतना ही नहीं, महिलाओं को लेकर लिखे और गाये जा रहे अश्लील गीतों पर जहां
बवाल मचा हुआ है वहीं कुछ गीतकारों द्वारा लिखे गये गीत लोकप्रिय भी हो रहे
हैं। इनमें से एक गीत प्रसून जोशी द्वारा लिखा गया है। विवाह के प्रति एक
लड़की की आकांक्षाओं को व्यक्त करते हुए कहते हैं :-
…बाबुल इतनी अर्ज सुन लीजो,
मुझे सुनार के घर न दीजो
मुझे जेवर कभी न भाये ।
मुझे राजा घर न दीजो
मुझे राज न करना आये।
मुझे लोहार के घर दीजो
जो मोरी जंजीरें पिघलाये।
इसी तरह गायिका शुभा मुद्गल का गीत लोगों की ज़ुबान पर है :-
दिल से निकली हूं रौशन दुआ की तरह
खुलकर बहने दो मुझे हवा की तरह।
अभिनेता अमिताभ बच्चन की कविता ने भी बहुत दिलों को छुआ। लेकिन इन सब के
बीच कुछ नेताओं के बयानों ने महिलाओं के प्रति अपनी बीमार मानसिकता दर्शा
कर निराश भी किया। हरियाणा के एक पूर्व मंत्री अपनी एक महिला कर्मचारी की
आत्महत्या के मुख्य आरोपी हैं लेकिन उनके समर्थन में उनके एक मित्र मंत्री
का कहना था कि यह कोई बड़ी बात नहीं, आखिर वह उनकी नौकर ही तो थी। अब
उन्हें कौन समझाये कि वह नौकर थी, कोई गुलाम नहीं। राष्ट्रपति के सांसद
पुत्र ने तो यहां तक कह दिया कि मोमबत्तियां जलाकर प्रदर्शन करना एक फैशन
हो गया है। ये महिलाएं सज-धज कर केवल फोटो ङ्क्षखचवाने आती हैं और उसके बाद
डिस्को चली जाती हैं। उनके इस बयान पर उनकी बहन को देश से माफी मांगनी
पड़ी। वैसे बहती हवा के रुख को देखते हुए उक्त नेता ने भी माफी मांगने में
देरी नहीं की। कुछ नेताओं ने लड़कियों के पहरावे पर टिप्पणी की और कुछ ने
उनके पुरुषों के साथ खुलकर बोलने पर। ऐसे में कोई इनसे कैसे समाज बदलने की
उम्मीद कर सकता है?
एक ङ्क्षचतक ने लिखा है कि सत्ता में बैठे लोग नहीं देख पा रहे हैं कि देश
की जनता के मौन क्रोध की स्थाई जमा राशि लगातार बढ़ती जा रही है। अब कोई
लोहिया है, न जयप्रकाश। अब लोगों को किसी की जरूरत नहीं है। वे अपने आप उठ
खड़े होते हैं। बस, ज़रा-सी ङ्क्षचगारी दिखनी चाहिए। उसे ज्वाला बनने में
देर नहीं लगती। ऐसा नहीं है कि इस ज्वाला की तपन नेता महसूस नहीं कर रहे
हैं। वे कर रहे हैं लेकिन मजबूर हैं। वे किसी ज्वाला में से कभी नहीं
गुजरे। वे इतिहास के धक्के से ऊपर आये हैं। उन्हें जनता का धक्का ही
धराशायी करेगा। कहा जाता है कि अत्याचार से बदतर अत्याचार को सहना होता है।
लोग जब सहने से इनकार करने लगें तो उसे बेशक अच्छे दिनों का संकेत समझा जा
सकता है। दुष्कर्म के खिलाफ सड़कों पर उतरे युवाओं में जो चेतना और संघर्ष
भावना दिखी, उसमें हम ऐसे संकेत अवश्य तलाश सकते हैं।
समाज के साथ-साथ पुलिस को भी अपनी भूमिका बदलनी होगी। छेड़छाड़ के मामलों
में पुलिस कर्मचारी किसी से पीछे नहीं। देश जब बदलाव के मोड़ पर है तब भी
थानों में महिलाओं व लड़कियों से किये जा रहे यौन-शोषण के मामले सामने आ
रहे हैं। इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या हो सकती है? कानून बदलने से या
नये व सख्त कानून बनाने उचित हैं लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है उन्हें
ईमानदारी से लागू करना और पुलिस को महिलाओं का सम्मान कैसे किया जाये, इसका
प्रशिक्षण देना। मर्दानगी की परिभाषा भी बदलनी होगी। हिंसा मर्दानगी का
प्रतीक नहीं है, यह बात अब समझनी होगी। वास्तव में यह दो मानसिकताओं की
लड़ाई है। आशा करनी चाहिए आने वाले वक्त में महिलाएं सड़कों पर सुरक्षित
होंगी।
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