कमजोर महिला नहीं ....दुराचारी ही है....
"औरतें उठी नहीं तो जुल्म बढ़ता जाएगा...जुल्म करने वाला ओर सीनाजोर होता जाएगा..." ये लाइनें ज्यादातर महिलाओं ने समय-समय पर सुनी होगी...परंतु वास्तव में इसको दिल से अपनाने का प्रयास बहुत कम ने ही किया होगा? अन्यथा आज इस समाज की ये हालत नहीं होती कि आए दिन कोई न कोई पुरूष रूपी नरपिचाश कभी कहीं तो कभी कहीं किसी महिला को अपनी हवस का शिकार बनाकर अपनी मर्दानगी साबित करता....। दिल्ली में 16 दिसंबर को चलती बस में लड़की के साथ गैंगरेप हुआ, मप्र में एक सप्ताह में ही अलग-अलग घटनाओं में गैंग रेप की चार वारदात हुई, जिसमें जबलपुर में 18 दिसंबर को बालिका के साथ, कटनी में 17 दिसंबर को किशोरी के साथ, रीवा में 19 दिसंबर को एक बालिका के साथ और ग्वालियर में 12 दिसंबर को एक महिला के घर में घुसकर गैंग रेप हुआ। ये सिलसिला थम नहीं रहा, इससे पहले गुवाहाटी में इसी साल 2012 की 9 जुलाई को सरेआम सड़क पर एक लड़की के कुछ लड़के कपडे़ तार-तार करते रहे और करीब 50 से ज्यादा लोग तमाशबीन बने रहे, किसी तमाशबीन ने लड़कों को रोकने की कोशिश नहीं की। ये मात्र घटनाएं नहीं है बल्कि समाज का वो कुरूप चेहरा है जो महिला को सिर्फ इस्तेमाल की वस्तु समझता है।
इस समाज की इससे बढ़ी विडम्बना और शर्मनाक
बात क्या होगी कि जिस महिला के गर्भ से ये दुनिया जन्मी है, उसी के साथ
दुराचार, अत्याचार करके पुरूष अपनी मर्दानगी साबित करने की कोशिश करता आ
रहा है। वर्षों से यही सिलसिला चला आ रहा है, कलेण्डर बदलते रहते है परंतु
घटनाएं समाप्त नहीं हो रही। जब भी अचानक कोई वीभत्स घटना सामने आती है तो
देश के कोने-कोने से हर वर्ग के लोग सड़कों पर विरोध और चर्चा के लिए निकल
पड़ते हैं। मीडिया को भी कुछ दिन के लिए चैनल में खबरे चलाने या अखबार में
खबर छापने के लिए मैटर मिल जाता है। दोषियों को कढ़ी सजा देने के लिए चर्चा
चलती है, सरकार, पुलिस, अदालत और जनप्रतिनिधियों आदि की जिम्मेदारी तय करने
की बात की जाती है, नए कानून बनाने की बात शुरू हो जाती है, कानून के
पहलुओं पर बहस छिड़ती है. आखिरकार हफ्ते-पंद्रह दिन में सब मामला ठंडा हो
जाता है। अखबार में छपी इन्हीं खबरों पर कहीं कोई मूंगफली तो कहीं कोई
समोसा खाता मिल जाएगा। आखिरकार इस सबके पीछे रह जाती है वो पीड़ित महिला या
लड़की, जो जब तक जिंदा रहती है तब तक हर दिन उस नासूर घटना की पीड़ा को सहन
करती है। जो लोग घटना के वक्त उसके हमदर्द बने रहने का नाटक करते है वही
बाद में बार-बार पीड़ित महिला को घटना की याद दिलाकर यही एहसास कराते हैं
जैसे घटना के लिए वो महिला खुद दोषी रही होगी, जैसे महिला ने ही दरिंदे
पुरुषों को आमंत्रित किया होगा रेप या गैंग रेप की घटना को अंजाम देने के
लिए। समाज की प्रताड़ना से ही तंग आकर कई रेप पीड़ित लड़कियां और महिलाएं
आत्महत्या तक कर लेती है।
मेरे मन में हमेशा इस तरह की घटनाएं सामने
आने के बाद यही विचार आता है कि आखिरकार कब तक महिलाएं इसी तरह
दुराचार-अत्याचार सहन करती रहेगी, कब तक हनुमानजी की तरह उनको अपनी
शक्तियों का ज्ञान नहीं होगा, क्यों और कब तक वे अपनी मदद स्वयं न करके
दूसरों की तरफ सहायता के लिए हाथ बढ़ाए रहेगी? वर्षो से इस पुरुष प्रधान
समाज ने हर तरह से महिला को यही एहसास कराने की कोशिश की है कि वो कमजोर
है, पुरुष की मदद के बिना नहीं रह सकती। क्या वास्तव में जिस दुर्गा-काली
से पुरूष शक्ति का वरदान मांगता है वो कमजोर हो सकती है? मेरा मानना है कि
नहीं, बिल्कुल नहीं। जिस नारी ने पुरूष को जन्म दिया आखिरकार वो कमजोर कैसे
हो सकती है। जरूरत बस इस बात की है कि महिला अपनी आत्मरक्षा के लिए किस
परिस्थिति और समय पर क्या किया जाना चाहिए, इस बात का ज्ञान अपनी चेतना में
सदैव रखे, तभी समाज के कलंक रूपी दरिंदों में दुराचार का विचार आने के साथ
ही उसके अंजाम को सोचकर भय पैदा हो सकता है! अब लगने लगा है कि विकसित और
सभ्य होने का नाटक करने वाले इस समाज में महिलाओं को अपनी रक्षा खुद ही
करनी होगी, क्योंकि पुलिस, अदालत, सरकार और जनप्रतिनिधि ही किसी लायक होते
तो समाज की ये स्थिति नहीं होती। अगर दरिंदे अपराधियों में कानून का भय
होता तो शायद अब तक समाज से अपराध ही समाप्त हो जाते। परंतु हमारे देश में
कानूनी प्रक्रिया में इतने होल हैं कि अपराधी आसानी से ससम्मान बच निकलता
है और पीड़ित ही समाज में शर्मशार सा होता नजर आता है। हमारे देश का कानून
अपराधी को शरण देकर पीड़ित को ही कहता है कि वो सवित करे कि उसके साथ अपराध
हुआ है।
सवाल यही उठता है कि आखिरकार समाज की ये
हालत कैसे हो गई, कहां हमारी चूक होती जा रही है कि स्थिति दिनोंदिन बद से
बदतर होती जा रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि बच्चों का पालन-पोषण
करने की हमारी प्रक्रिया बहुत गलत है। पुरूष प्रधान समाज में लड़के और
लड़कियों की परवरिश बहुत अलग तरह से की जाती है जहां लड़कों को सभी तरह की
छूट मिलती है, वहीं लड़कियों को शुरू से ही दब कर, तथाकथित संस्कारों के नाम
पर दब्बूपने में रहने और किसी से भी झगड़ा-फसाद न करने और शान्ति से अपने
घर या स्कूल में रहने की समझाइश दी जाती है, लड़की की जिंदगी का लक्ष्य यही
माना जाता है कि वे किसी भी तरह से पढ़-लिखकर अपनी ससुराल चली जाए। ससुराल
में किसी भी तरह की प्रताड़ना होने पर भी वे वहीं रहें क्योंकि ससुराल से
लड़की की अर्थी ही उठती है। इस तरह की बातें हमारे ग्रामीण क्या शहरी परिवेश
तक में सुनने को मिल जाती है, वहीं लडकों को बचपन से ये कोई नहीं सिखाता
कि अपनी बहन,माँ के साथ पड़ोस की दीदी का भी वो सम्मान करे।
माना कि आज भी देश की लगभग आधी महिलाएं
साक्षर-जागरूक नहीं है परंतु जो कुछ साक्षर जागरूक है उन्हें ही शुरूआत
करनी होगी। अपनी बेटी का पालन-पोषण करते समय उसकी चेतना में कभी भी ये बात न
आने दे कि वो किसी भी तरह से कमजोर है। उसे संस्कारी बेटी बनाने के साथ ही
जरुरत पड़ने पर तत्काल दुर्गा,काली,चंडी का रूप भी धारण करना सिखाना होगा,
उसे सिखाना होगा कि यदि उसके साथ कोई बदतमीजी या दुराचार करने की कोशिश
करता है तो उसका जबाव कैसे दिया जा सकता है। जिस मांस के लोथड़े का पुरूष
हथियार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश करता है वही यौनांग उसकी सबसे बढ़ी
कमजोरी भी है। यदि दुराचार के समय महिला की चेतना में यौनांग पर आक्रमण
करने का विचार आ जाए तो दरिंदा पुरूष अपनी वाकी जिंदगी किसी महिला पर
दुराचार करने लायक नहीं बचेगा। और न फिर वो महिला की श्रेणी में आएगा और न
ही पुरूष की!
रेप या गैंग रेप एक ऐसा वीभत्स दुराचार है
जिसमें सिर्फ महिला का शरीर आहत नहीं होता बल्कि उसका मन-मस्तिष्क सब
हमेशा के लिए आहत हो जाते है। मरते दम तक वो महिला अपने साथ हुई उस घटना को
शायद ही कभी भूल पाती हो। ऐसे में एक तरह से शरीर से जिंदा रहने के बाद भी
ज्यादातर रेप पीड़ित महिलाएं एक तरह से मन से तो मर ही जाती है। फिर इस
दुराचार को अंजाम देने वाले पुरूष को क्यों नहीं ऐसी सजा मिलनी चाहिए कि वो
भी मरते दम तक उस दुराचार की घटना को याद करके दूसरे पुरूषों को कभी भी
दुराचार न करने के लिए प्रेरित करे। भारत देश में कभी ऐसा कानून नहीं बन
सकता कि दुराचार करने वाले पुरूष का बंध्याकरण कर दिया जाए या यौनांग काट
दिया जाए। इसलिए यदि कोई दरिंदा किसी महिला के साथ रेप करे तो महिला को ही
ये साहस करना चाहिए कि उस दरिंदे को कभी भी दुवारा दरिंदगी करने लायक न
छोड़े।
बहुत लोगों को इस तरह के विचारों से गहरा
झटका लगेगा। लेकिन अब वास्तविकता यही है कि बेटियों-लड़कियों को एहसास
दिलाना होगा कि वे कमजोर नहीं है और उन्हें अपने साथ होने वाले दुराचार का
जबाव देने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। आखिरकार सम्मानपूर्वक जिंदगी तभी
हम बसर कर सकते है जब इस समाज में आधी आबादी के लिए कदम-कदम पर भय न हो,
बल्कि दुराचार का विचार आने के साथ ही दरिंदगी की बीमार मानसिकता वाले
पुरूष में अंजाम को सोचकर उसकी आत्मा कांप उठे! तभी लग सकता है अमानवीय
दरिंदगी की घटनाओं पर अंकुश!
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