पापों को हरने का त्योहार
त्योहार लोक जीवन की प्रगाढ़ता के केन्द्र बिन्दु माने जाते हैं। यह न केवल हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जीवन को प्रभावित करते हैं वरन इनके साथ हमारी आर्थिक गतिविधियाँ भी पूरी तरह से जुड़ी हुई हैं। त्योहार पग पग पर व्यक्ति को समाज के साथ जोड़ते हैं। प्रकृति के बदले परिधानों के साथ जुड़े त्योहार फूलों के बदलते रंगों की भाँति व्यक्ति को लुभाते रहते हैं। इनकी विविधता मानव को अपने मोहपाश में बाँधे रखती है।
विजयदशमी का त्योहार वर्षा ऋतु की समाप्ति तथा शरद के आगमन की सूचना देता है। ब्राrाण इस दिन सरस्वती का पूजन करते हैं जबकि क्षत्रिय शस्त्रों की पूजा करते हैं। अधर्म पर धर्म की विजय के रूप में यह त्योहार सदियों से भारत के कोने कोने में मनाया जाता है। सीधे सरल रूप से भारतीय जनमानस ने यह स्वीकार कर लिया है कि इस दिन भगवान राम ने असुर रावण पर विजय पाई थी जबकि अनेक विद्वान इस बात को भ्रामक मानते हैं।
एक अन्य कथा के अनुसार परशुराम की माता रेणुका ने शापग्रस्त देवताओं के आग्रह पर उनके कुष्ठ रोग दूर करने के लिए अपने पति ‘भृगु’ की आज्ञा के बिना नौ दिन तक देवताओं की सेवा की फलत: दसवें दिन उनका कोढ़ दूर हो गया। शाप मुक्त होने के कारण देवताओं ने यह दिवस दु:ख मुक्ति अथवा विजय दिवस के रूप में मनाया। इस दिन आश्विन शुक्ला दशमी थी अत: तभी से यह दिन विजय दशमी के रूप में मनाया जाने लगा। इसी प्रकार इस दिन को नरकासुर राक्षस के वध के साथ भी जोड़ा जाता है। कहते हैं कि नरकासुर ने अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए 1600 स्त्रियों की बलि देने का निश्चय किया। उसे वरदान प्राप्त था कि उसका वध केवल नारी द्वारा ही होगा। भगवान श्री कृष्ण ने ‘सत्यभामा’ के हाथों उसका वध करवाया। नरकासुर के हाथों बच जाने के कारण नारियों ने इसे विजय पर्व के रूप में मनाया।
चाहे राम ने रावण का संहार किया हो अथवा अजरुन द्वारा कौरवों पर विजय पाई गई हो-यह दिवस सर्वत्र निर्विवाद अधर्म पर धर्म की जीत के रूप में मनाया जाता है।
दशहरा एक प्रतीक पर्व है। राम-रावण के युद्ध में जिस रावण की कल्पना की गई है वह है मन का विकार और विकार रहित परम पुरुष हैं राम। सीता आत्मा है जबकि राम स्वयं परमात्मा। आत्मा का अपहरण जब रावण ने किया तो चारों ओर धर्म नष्ट होने लगा लोग वानरों की भाँति चंचल और उच्छृंखल होने लगे तब राम ने उनको अर्थात उनके काम-क्रोध-मोह आदि को अनुशासित किया तभी रावण का वध संभव हो पाया। राम और रावण विपरीतार्थ के बोधक हैं। रावण का अर्थ है रुलाने वाला जबकि राम का अभिप्राय है लुभाने वाला। रावण के दस सिर कहे गए हैं। उसका सिर तो एक ही है शेष काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर, लोभ, मन, बुद्धि और अहंकार को उसके सिरों के रूप में स्वीकार किया गया है।
महाराष्ट्र और उससे लगे भू प्रदेशों में दशहरे के दिन आपटा अथवा शमी वृक्ष की पत्तियाँ अपने परिजनों एवं मित्रों में सवर्ण के रूप में वितरित करने की प्रथा है। आपटा वृक्ष की पत्तियाँ मध्य से दो समान भागों में विभक्त रहती हैं। यह वृक्ष गाँव की सीमा से बाहर ही होते थे। इस पत्ती को गाँव की सीमा से बाहर जा कर तोड़ना ही सीमोल्लंघन है। यह पत्ती द्वैत वृत्ति पार कर अद्वैतवृत्ति में जा कर दशेंन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने का प्रतीक है। इसी प्रकार शमी की पत्तियाँ सुवर्ण मान कर वितरित की जाती हैं। शमी वृक्ष की पत्तियाँ बुद्धि के देवता गणोश जी को अर्पित की जाती हैं। शम् अर्थात् कल्याणकारक। ‘शमीं’ वह कल्याणकारी अवस्था है जो बुद्धि के देवता की शरण में जाने पर प्राप्त होती है। बुद्धि के देवता की शरण में जाने का अर्थ भी दशेन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ही है। कई शताब्दीयों से मनाये जाने वाले इस त्योहार को मध्य युगीन राजाओं, महाराजाओं ने नए आयाम दिए, कुल्लू, कोटा, और कर्नाटक में आज भी 14वीं शताब्दी की कई बातों की झलक मिल जाती है। कुमाउँ का दशहरा भी उत्तर भारत में रामायण के पात्रों के पुतलों के कारण काफी चर्चित है।
कुल्लू में दशहरा देवताओं के मिलन का मेला मान कर मनाया जाता है। विश्वास किया जाता है कि देवता जमलू ने देवताओं को एक टोकरी में उठा कर किन्नर कैलाश की ओर से कुल्लू पहुँचाया था। तभी से कुल्लू देवताओं की भूमि मानी जाती है और यहाँ पर देवताओं का मिलन प्रति वर्ष होता है। कुल्लू घाटी के प्रत्येक गाँव का अपना ग्राम देवता होता है। प्रत्येक देवता का अपना मेला लगता है। देश के दूसरे भागों में विजय दशमी के समाप्त होते ही आश्विन शुक्ल दशमी से पूर्णिमा तक कुल्लू के ढाल मैदान में सभी देवता सज धज कर, गाजे बाजे के साथ लाये जाते हैं। परम्परागत वेश भूषा में सजे स्त्री पुरुष देवता की सवारी के साथ आते हैं। कुल्लू की घाटी के कण कण में लोक नृत्य, संगीत और मस्ती भरी हुई है फलत: यह मिलन स्थली विभिन्न प्रकार के बाह्य यंत्रों के स्वरों एवं लोक नर्तकों की थापों पर थिरक उठती है।
दक्षिण भारत में कर्नाटक प्रान्त के मैसूर नगर का दशहरा भी अपनी भव्यता और तड़क भड़क के लिए विश्व प्रसिद्ध है। कन्नड़ में दशहरे को नांदहप्पा अर्थात राज्य का त्योहार कहा जाता है। 15वीं शताब्दी में मैसूर के लोकप्रिय एवं कलाप्रेमी राजा कृष्ण देव राय ने इस उत्सव को राजकीय प्राश्रय दिया, नवरात्रि उत्सव के अन्तिम दिन राजा हाथी पर सवार हो कर नागरिकों के मध्य जाते और उनके द्वारा सम्मानपूर्वक दिए गये उपहार प्रेम से स्वीकार करते। राजमहल से चल कर राजा की यात्रा नगर सीमा बाहरबली मंडप तक जाती। यहाँ पर दशहरे के साथ महाभारत काल से ही जुड़े शमी वृक्ष की पूजा की जाती और इस वृक्ष की पत्तियों को सुर्वण मान कर परिजनों में वितरित किया जाता है। महाराष्ट्र में भी दशहरे पर आपटा वृक्ष की पत्तियों को स्वर्ण मान कर बाँटने की प्रथा है। वास्तव में आपटा वृक्ष की पत्तियाँ मध्य से दो समान भागों में विभक्त रहती हैं। दिखने में अत्यन्त सुन्दर यह पत्ती अद्वैत और बुद्धिमत्ता का प्रतीक मानी जाती है। इन्हें अभिवादन और उज्जवल भविष्य का सूचक माना जाता है। इसी कारण इसे मित्रों में वितरित करने की प्रथा है।
शमी वृक्ष के संबंध में विद्वानों का मत है कि पांडवों ने अपने एक वर्ष के अज्ञातवास में इसी वृक्ष पर अपने अस्त्र शस्त्र छिपा कर रखे थे। इस वृक्ष को न्याय, अच्छाई और सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है। कर्नाटक के निवासियों का मत है कि जिस प्रकार पांडवों ने धर्म की रक्षा की उसी प्रकार से यह वृक्ष उनकी तथा उनके परिजनों की रक्षा करेगा।
इस त्योहार को प्राश्रय देने वाला विजय नगर राज्य अपने अपार वैभव के लिए विश्व प्रसिद्ध था फलत: राजा की सवारी बहुत ही भव्यता के साथ निकाली जाती थी।
आजकल जुलूस में राजा का स्थान महिषासुरमर्दिनी चांमुडेश्वरी देवी की प्रतिमा ने ले लिया है। चामुंडेश्वरी देवी का मन्दिर मैसूर महल से थोड़ी ही दूर एक सुन्दर पहाड़ी पर बना हुआ है।
मैसूर में दशहरे के अवसर पर एक विशाल प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। इसमें देश भर से व्यापारी पहुँचते हैं। राज्य के महत्त्वपूर्ण कला-शिल्प यहाँ पूरी सज धज के साथ रखे जाते हैं।
चन्दन की लकड़ी से बनी कलाकृतियाँ, अगरबत्तियों और रेशमी साड़ियों के लिए लोग इस उत्सव की वर्ष भर प्रतीक्षा करते हैं।
सांस्कृतिक गतिविधियों की चहल पहल से भरे वातावरण में मैसूर का राजमहल जब विद्युत के प्रकाश से जगमगाता है तो उसकी छटा देखते ही बनती है।
कुल्लू और कर्नाटक की ही भाँति कोटा, राजस्थान का दशहरा भी पिछले पांच सौ वर्ष से हडौती संभाग की जनता के लिए आकर्षक का केन्द्र बना हुआ है। उत्तर भारत का यह सबसे प्राचीन दशहरा माना जाता है। कोटा के महाराजा इसे शक्ति पर्व के रूप में मनाते आये हैं। 15वीं शताब्दी में राव नारायण दास ने मालवा सुल्तान महमूद को परास्त करने के उपलक्ष में इसे प्रारम्भ किया था।
1571 में कोटा राज्य की स्थापना के साथ राव माधे सिंह ने यहाँ लंका पुरी का निर्माण कराया और पुतलों के स्थान पर मिट्टी के रावण-वध की प्रथा डाली। स्वतंत्रता प्राप्ति तक यहाँ 15.20 फुट ऊंचे रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण के मिट्टी के पुतले बनाये जाते थे। उनके गले में बंधी जंजीर को खींच कर राजदरबार का शाही हाथी उनका वध करता था। 1771 में जब महाराव उम्मेद सिंह गद्दी पर बैठे तो उन्होंने इस उत्सव के सार्वजनिक रूप को निखारा।
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