Tuesday, October 15, 2013

संकल्प दशहरा

 बुराई पर विजय का संकल्प दशहरा

दशहरा सिर्फ एक पर्व का नाम नहीं है बल्कि शक्ति की पूजा सहित खुद के अंदर के ‘रावण’ को जलाने और इसका संदेश देने का पर्व है। यह सुरक्षात्मक सुशासन और साधनविहीन युद्ध में लड़ाई जीतने का प्रतीक भी है। इसमें बुराई पर अच्छाई की जीत की कहानी समाहित है। यही संदेश रामायण से लेकर दुर्गा सप्तशती तक में निहित है
डॉ. मोहन चंद शारदीय नवरात्र में नौ दिनों तक दुर्गा की नौ शक्तियों की पूजा-आराधना के बाद अश्विन शुक्ल दशमी को दशहरा या विजयादशमी का पर्व पूरे देश में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। विजयादशमी को ही अपराजिता पूजा का पर्व भी कहा जाता है। नवदुर्गाओं की माता अपराजिता संपूर्ण ब्रrांड की शक्तिदायिनी और ऊर्जा प्रदान करने वाली देवी हैं। देव-दानव से युद्ध में नवदुर्गाओं ने जब दानवों के संपूर्ण वंश को निमरूल कर दिया तब दुर्गा अपनी आदिशक्ति अपराजिता को पूजने के लिए शमी की घास लेकर हिमालय में अंतध्र्यान हो गई। बाद में आर्यावर्त के राजाओं ने विजय पर्व के रूप में विजयादशमी के आयोजन की परंपरा प्रारम्भ की। भगवान रामचंद्र ने नौ दिनों तक शक्ति की समाराधना करने के बाद इस दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया था। इसलिए कालांतर में विजयेच्छु राजा इस दिन शस्त्र-अस्त्र की पूजा करते थे तथा विशाल शोभा यात्रा निकालकर सीमा उल्लंघन का अनुष्ठान भी करते थे। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार, अश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय ‘विजय’
नामक शुभ काल होता है जिसके कारण इस समय किए गए सभी कार्य सिद्धिदायक होते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से इंद्र ने दशहरा के दिन असुरों पर विजय प्राप्त की। नवरात्र अयोध्यावंशी भारत जनों का मुख्य पर्व है। ‘तैत्तिरीय आरण्यक’ के अनुसार, नवरात्र में अष्टमी के दिन अयोध्या दुर्ग के रक्षक वीर योद्धा, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत अगिमिच्छवं भारत:’ के विजय-घोष से शस्त्र पूजा करते थे। इतिहास साक्षी है कि जब भी देश पर आक्रमण हुआ, अयोध्या दुर्ग के रक्षक भारतवंशी वीरों ने देश रक्षा का अभूतपूर्व इतिहास कायम किया। तभी से नवरात्र के अवसर पर दुर्ग रक्षिका दुर्गा की पूजा का प्रचलन शुरू हुआ। महाभारत का युद्ध भी विजयादशमी के दिन प्रारंभ हुआ। राजा विक्रमादित्य ने इसी दिन देवी हरसिद्धि की पूजा की थी। छत्रपति शिवाजी ने भी विजयादशमी के दिन देवी दुर्गा को प्रसन्न करके तलवार धारण की थी। तभी से मराठा वीर सैनिक शत्रु विजय का अभियान दशहरे के दिन से प्रारंभ करते हैं।
शस्त्र-पूजा की परंपरा 

 इधर, भारतीय सेना में आज भी शस्त्र-पूजा का पर्व अत्यंत हर्षोल्लास से मनाया जाता है। भारतीय सेना में जाट, राजपूत, मराठा, कुमाऊं और गोरखा रेजीमेंट में विजयादशमी के अवसर पर शस्त्र-पूजा की परंपरा विशेष रूप से प्रचलित है। महाराष्ट्र में शस्त्र-पूजा ‘सीलांगण’ एवं ‘अहेरिया’
नाम से लोकप्रिय है। इस अवसर पर मराठे एवं राजपूत सैनिक दुर्गा एवं राम की मूर्तियों को पालकी में रखकर सीमा का उल्लंघन करते थे। सन 1434 में जब बूंदी एवं चित्ताैड़गढ़ के राजपरिवार इस तरह सीमा उल्लंघन कर रहे थे, उसी दिन हांडा सेनाओं ने सिसौदियों पर आक्रमण कर दिया जिसमें राणा कुंभा को अपनी जान गंवानी पड़ी। दरअसल, विजयादशमी का पर्व राष्ट्ररक्षा में तत्पर क्षत्रिय वीरों के शस्त्र परीक्षण और सैन्य प्रशिक्षण का राष्ट्रीय अभियान है। इसे राज्य की सीमाओं के उल्लंघन की गतिविधियों से इसलिए जोड़ा गया ताकि देश की सीमाओं की शत्रु सेनाओं की घुसपैठ से रक्षा की जा सके। भारत के प्राचीन राष्ट्रवादी चिंतकों का यह मानना था कि आततायियों और आतंक फैलाने वाले तत्वों का सफाया किए बिना कोई भी राष्ट्र आत्मरक्षा हेतु समर्थ नहीं हो सकता- ‘शस्त्रोण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्रार्चचा प्रवर्तते।’ प्राचीन काल में रघु आदि चक्रवर्ती राजाओं ने जितने भी दिग्विजय अभियान चलाए, उनका मुख्य उद्देश्य न तो साम्राज्यवादी लिप्सा थी और न ही विजितों की संस्कृति को नष्ट करना प्रयोजन था। चक्रवर्ती होने का अर्थ यही था। चक्र के आरों की भांति प्रत्येक राज्य को अपनी स्वतंत्रता- प्रभुता कायम रखते हुए एक केंद्रीय सत्ता द्वारा पराक्रम पूर्ण सुरक्षात्मक सुशासन प्रदान करना। विजयादशमी के अवसर पर राम-रावण युद्ध की हजारों वर्ष पुरानी घटना आज भी प्रासंगिक और प्रेरणादायी इसलिए है क्योंकि राम ने लंका पर अपना सैन्य अभियान अयोध्या की राजकीय सेना के बल पर नहीं चलाया बल्कि रावण के अत्याचार और आतंक से उत्पीड़ित वनवासी ऋषि-मुनियों, शबरी आदि भील जातियों एवं वानर-भालू आदि जनजातियों को संगठित करते हुए अपने लंका अभियान को सफल बनाया। राम-रावण युद्ध साधनविहीन जनसामान्य द्वारा अष्टांग राज्य से सम्पन्न एक शक्तिशाली राष्ट्र के विरुद्ध किया गया सैन्य अभियान भी है जिसमें वानर-भालू आदि अप्रशिक्षित सैनिकों ने अपने दृढ़-संकल्प और कठोर परिश्रम से लंका की प्रशिक्षित तथा साधन-संपन्न सेना को पराजित किया। जारी पेज 3
जलायें अपने भीतर का रावण

मर्यादा पुरुषोतम श्रीराम का चरित्र एक आदर्श पुरुष का चरित्र है। इसलिए सभी इस चरित्र और रामायण के अन्य पात्रों से शिक्षा लें, इसलिए नवरात्रों में जगह-जगह रामलीलाओं का मंचन किया जाता है। राजा दशरथ को एक आदर्श पिता के रूप में, भगवान राम को मर्यादा पुरुषोतम और रघुकुल रीत रूपी वचनों का पालन करने के रूप में, भाई लक्ष्मण को बड़े भाई की भक्ति के रूप में, भाई भरत को बड़े भाई के प्रति समर्पण के रूप में, उर्मिला को पति विरह के रूप में, कौशल्या को आदर्श मां के रूप में, कैकेयी को अवसर का फायदा उठाने के रूप में जहां हमेशा याद किया जाता है, वहीं हनुमान की राम भक्ति, विभीषण की सन्मार्ग शक्ति, जटायु की पराक्रम सेवा और सुग्रीव की राम सहायता हमेशा अमर रहेगी। सच पूछिए तो रामायण एक आदर्श जीवन जीने का सन्मार्ग सिखाती है। तभी तो हम बार-बार रामायण पढ़ते हैं और दशहरे से पहले रामलीला का मंचन कर राम काल से प्रेरणा लेकर राम राज्य की कल्पना को साकार करने की कोशिश करते हैं। रावण को उसके पुतले के प्रतीक रूप में इस बार फिर जलाया जाएगा। यह रावण सदियों से जलता आ रहा है। फिर भी रावण हर साल जलने के लिए फिर सामने आ जाता है। दरअसल, जितने रावण हम जलाते हैं, उससे ज्यादा पैदा हो जाते हैं। रावण का तो फिर भी चरित्र था, जिसने अपनी बहन सूर्पनखा के अपमान का बदला लेने के लिए भगवान राम की अर्धांगिनी सीता माता का अपहरण किया लेकिन उनकी पवित्रता को आंच नहीं आने दी और उन्हें अशोक वाटिका में ससम्मान रखा। परन्तु आज के रावणों का कोई चरित्र नहीं रह गया है। इसलिए आज के रावणों का अंत होना वर्तमान की सबसे बड़ी चुनौती है। रामलीला मंचन के बाद दशहरे पर भले ही हम हर साल रावण जलाकर बुराई का अंत करने की पहल करते हैं परंतु यथार्थ में रावण का अंत पुतलों को जलाने से नहीं होता। असली रावण तो हम सबके अंदर विकारों के रूप में विराजमान है। काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार रूपी विकारों को जलाकर हम पावन बन जाएं तो भगवान राम की पूजा सार्थक हो जाएगी और रावण रूपी विकारों का भी अंत हो जाएगा। इतना ही नहीं, रावण रूप में जो देश के गद्दार हैं, रावण रूप में जो देश की शांति का हरण करने वाले आतंकी हैं, रावण रूप में जो व्यभिचारी हैं, रावण रूप में जो भ्रष्टाचारी है, रावण रूप में जो हिंसावादी हैं, रावण रूप में जो घोटालेबाज हैं, रावण रूप में जो साम्प्रदायिकता का जहर समाज में घोल रहे हैं, रावण रूप में जो विकास के दुश्मन हैं, उनका अंत करने से ही रामराज्य की परिकल्पना साकार हो सकती है। भगवान राम किसी एक के नहीं बल्कि उन सभी के हैं, जो भगवान राम को अपना आदर्श मानकर उनके आदशरे पर चलते हैं। भगवान राम अयोध्या के ऐसे महान राजा हुए, जिनके राज्य में कोई भी दुखी नहीं था। चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का क्यों न हो, उनके राज्य में सभी सुखी एवं प्रसन्न थे। तभी तो रामराज्य को अब तक का सबसे अच्छा राज्य कहा जाता है। रामराज्य की परिकल्पना साकार करने के लिए हम सबको अपने-अपने विकारों को जलाना होगा, ठीक उसी रावण की तरह जिसे बुराई के रूप में हम वर्षो से जलाते आ रहे हैं।

लंका विजय के बाद भी राम ने न तो रावण के राज्य को अपने साम्राज्य में मिलाया और न ही किसी द्वेष भावना से लंका की राक्षसी संस्कृति को मिटाने का प्रयास किया। ‘रामचरितमानस’ के राम-रावण युद्ध के प्रसंग की चौपाई ‘रावनु रथी बिरथ रघुबीरा’ से प्रेरणा लेकर गांधीजी ने आधुनिक युग में रामकथा का एक नया इतिहास ही रच डाला। त्रेता युग के राम को आदर्श मानते हुए गांधीजी ने शस्त्रहीन अहिंसक क्रांति द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अत्याचार से उत्पीड़ित भारत को मुक्त कराने की एक अद्भुत मिसाल प्रस्तुत की। पर चिंता का विषय है कि उनके रामराज्य का सपना अधूरा ही है।
हजार सिरों वाला रावण नवरात्र के अवसर पर पू रे देश में रामलीलाओं के मंचन का मुख्य उद्देश्य होता है- असत्य पर सत्य की विजय, अधर्म पर धर्म की जय तथा सदाचार से भ्रष्टाचार का निमरूलन का संदेश देना। रामलीला मैदानों में रावण, मेघनाद, कुंभकरण के विशालकाय पुतले बनाए जाते हैं तथा ‘विजयादशमी’ के दिन उनका दहन किया जाता है। रावण के पुतले तो हर वर्ष जला दिए जाते हैं किन्तु अंधविकासवादी आसुरी तेवरों के परिणामस्वरूप आज रावण दस सिरों वाला नहीं रहा, बल्कि हजार सिरों वाला हो चुका है। भ्रष्टाचार, दुराचार, बलात्कार, दुर्बल उत्पीड़न, पर्या वरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मि ग, आतंकवाद आदि की निरंतर बढ़ोत्तरी के कारण ‘सहस्रस्कंध’ रावण अपना विराट रूप धारण करके जन सामान्य को संत्रस्त कर रहा है। किंतु विडम्बना यह है कि आज हमारे पास ऐसा कोई राम नहीं, जो इस ‘सहस्रस्कंध’ रावण का संहार कर सके। इसलिए विजय यात्रा का अभियान समाप्त नहीं हो जाता बल्कि शारदीय नवरात्रों पर एक ऐसी बिरथ राम की तलाश जारी रहती है, जो धनबल तथा बाहुबल की माया शक्ति से जकड़ी हुई सीतारूपी लोकतंत्र का अपहरण करने वाले वर्तमान भ्रष्टाचार रूपी रावण से मुक्ति दिला सके। सदैव जारी है यह संघर्ष विजयादशमी के अवसर पर आज भी रावण के अत्याचारों से संत्रस्त जनता उस शमीवृक्ष की पूजा करना चाहती है, जिसके अंदर ‘सहस्रस्कंध’
रावणों को भस्म करने की अग्नि प्रज्ज्वलित है। जनता इस दिन उस नीलकंठ पक्षी में शिव के दर्शन करना चाहती है जो आतंकवाद रूपी रावण द्वारा फैलाए गए विष का पान कर सकता है। भारतीय परंपरा में राम-रावण युद्ध का यह संघर्ष सदैव चलायमान रहता है।
रावण को उसके पुतले के प्रतीक रूप में इस बार फिर जलाया जाएगा। यह रावण सदियों से जलता आ रहा है, फिर भी रावण हर साल जलने के लिए सामने आ जाता है

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