देवताओं की शक्ति दुर्गा
तुमहीं पाई कछु रहै ना शेषा, तुमहीं पाई कछु रहै न क्लेशा।
जानत तुम हीं तुमहीं ह्वै जाई, पारस परस कुधातु सुहाई॥
आदि शक्ति की उपासना सीधे तौर पर शिव शक्ति से जुड़ जाता है। देवी पुराण के अनुसार दधीचि दक्ष से कहते हैं कि —जो विष्णु हैं, वे ही महादेव हैं और स्वयं शिव ही नारायण हैं। भगवान विष्णु भी अपने को शिव तथा शिव को विष्णु बताते हुए कहते हैं—
‘अहं शिव: शिवो विष्णुर्भेदो नास्त्यावयोर्यत:।’
सती के वियोग से दुखी भगवान शंकर को समझाते हुए ब्रह्मा और विष्णु कहते हैं कि सती ब्रह्ममयी, सनातन पूर्ण प्रकृति हैं। उनका देहत्याग तो एक भ्रान्ति है, हम तीनों पुरुष रूप में उन्हीं की मूर्ति हैं। इससे भी ब्रह्मा, विष्णु और महेश का शक्ति के साथ ऐक्य सिद्ध होता है। जगदम्बा का शिव से कहना कि, ‘महेश्वर! मैं तुम्हारा कभी परित्याग नहीं कर सकती, आप ही मुझ महाकाली के हृदय स्थान और परम आश्रय हैं।’ यह भी शिव और सती की अभिन्नता का द्योतक है। हिमालय को अपने स्वरूप के विषय में बताते हुए देवी पार्वती कहती हैं कि मैं सृष्टि करने के लिए अपनी इच्छा से स्त्री-पुरुष दो रूपों में हो जाती हूं। शिव परमपुरुष और मैं उनकी परमशक्ति शिवा हूं। इसीलिए मुझे शिव-शक्ति रूप परब्रह्म कहा जाता है। देवी पुराण में एक अन्य कथा भी आती है कि एक बार ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन्द्र को लेकर महाकाली के लोक में गए। वहां उन्हें महाकाली और उनके दक्षिण पाश्र्व में महाकाल के दर्शन हुए। वहां सहसा ही भगवान शिव महाकाल में एक रूप हो गए। इस पुराण के अनुसार देवी महाकाली ने ही भगवान शंकर की इच्छा से पृथ्वी का भार दूर करने के लिए पुरुष रूप में अवतार लिया था। उन्होंने लीलापूर्वक कृष्ण का रूप धारण कर छल से पृथ्वी का भार हरण किया। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण और भगवती महाकाली का भी एक होना यह पुराण प्रमाणित करता है।
देवीपुराण के अनुसार श्री गणेश जी साक्षात् भगवान नारायण श्री विष्णु ही हैं। उन्होंने ही भगवान सदाशिव और देवी पार्वती के पुत्र के रूप में जन्म लिया। वेद, पुराण, शास्त्र, उपनिषद् आदि में शक्ति शब्द का प्रयोग देवी, पराशक्ति, ईश्वरी, मूल प्रकृति, महामाया, योगमाया आदि नामों से निर्गुण ब्रह्म एवं सगुण ब्रह्म के लिए भी किया गया है। अत: शक्ति नाम से ब्रह्म की उपासना करने से परमात्मा की ही प्राप्ति होती है। जब शिव अपने विनोद के लिए स्वयं जीवात्मा बन जाते हैं, तब शिव में रहने वाली वह शक्ति भी अपने स्वरूप को संकुचित करके उस जीवात्मा में भक्ति के रूप में प्रवेश करती है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी देवीपुराण के इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है कि जैसे दो फूल सुगन्ध एक, दो दीप प्रकाश एक, दो ओष्ठ शब्द एक, दो नेत्र दृष्टि एक है। जैसे अग्नि में उष्णता,कर्पूर में सुगन्ध, चन्द्र में चन्द्रिका, विद्युत एवं मणि में प्रकाश शक्ति, पृथ्वी में धारणा शक्ति आदि निहित हैं, उसी प्रकार शिव, ब्रह्मा, विष्णु में शक्ति निहित हैं। जहां तक दुर्गा की उत्पत्ति का प्रसंग है तो वे देवताओं की शक्ति का समुच्चय हैं तथा संघ शक्ति का प्रतीक हैं। इसलिए नवरात्र यानी नौ दिन का पर्व ऋतु-संध्या होने के कारण साधना व उपासना, ईश्वराराधन करने का महत्वपूर्ण काल है। इन दिनों किया गया ब्रह्म संबंध आत्मा को ब्रह्म बीज के रूप में उपलब्ध होता है।
अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि शक्ति, (देवी) शिव, ब्रह्मा, विष्णु, गणेश आदि वस्तुत: एक ही हैं। इनमें स्वरूपभेद है, न कि तत्वभेद। तात्विक रूप से ये सभी एक ही हैं। देवीपुराण के रचयिता वेदव्यास जी को यह पहले से ही ज्ञात था कि कलियुग में लोग शाक्त, वैष्णव, शैव या गाणपत्य सम्प्रदाय के नाम पर परब्रह्म परमात्मा में भेदभाव करके संघर्ष की स्थिति उत्पन्न कर देंगे। इसीलिए उन्होंने इस महाभागवत् रूपदेवी पुराण में सभी देवों के ऐक्य का प्रतिपादन किया है। सारांश यह है कि जगत् में सर्वत्र परमात्मास्वरूपा महाशक्ति ही विभिन्न विविध शक्तियों के रूप में लीला कर रही हैं। सर्वत्र स्वाभाविक ही शक्ति की पूजा हो रही है।
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