शहर-दर-शहर दशहरे की धूम
दशहरे की धूम देश की विविधता पर्वो को भी क्षेत्रीय रंगों में भिगोकर एक अलग पहचान देती है। विजयादशमी अर्थात दशहरे के साथ भी ऐसा ही है। रामकथा से जुड़े इस पर्व की धूम देशभर में होती है। असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई की विजय के उत्सव के रूप में यह पर्व मनाया जाता है। देश के विभिन्न हिस्सों में इसकी विभिन्नता उन्हें विशिष्ट भी बनाती है। यही वजह है कि देश के ज्यादातर हिस्सों में जहां इसे रावण,मेघनाद एवं कुम्भकरण के पुतले के दहन के साथ मनाया जाता है, वहीं द्रविड़ प्रदेशों में रावण दहन नहीं किया जाता। इस पर्व के साथ कई दूसरी कथाएं और मान्यताएं भी जुड़ी हैं। इस उत्सव को कृषि, शस्त्र पूजन, अपराजिता देवी और नीलकण्ठ पक्षी से भी जोड़ा जाता है। भिन्नता और भव्यता की कसौटी पर खास पहचान बनाने वाले देश के मुख्य दशहरा आयोजनों पर आधारित यह रिपोर्ट.. गर हमारे देश में कोस-कोस पर पानी और चार कोस पर बानी बदल जाती हो तो हमारे पर्व इन बदलावों से कैसे अछूते रह सकते हैं? विजयादशमी अर्थात दशहरा का पर्व भी अपने मूल में एक मुख्य भावना को लिए होते हुए भी देश के अलग- अलग हिस्सों में अलग-अलग रूप पा जाता है। यह विभिन्नता ही उसे विशिष्ट बनाती है। अगर आपने कुल्लू का दशहरा देखा है तो आप यह नहीं कह सकते कि आप मैसूर के दशहरे को देखने के आनन्द का अनुभव कर सकते हैं। वास्तव में देश के विभिन्न हिस्सों में दशहरा के अलग ठाठ, अलग रंग हैं। तभी तो यह कहीं 10 दिन तक मनाया जाता है तो कहीं इसका आयोजन 75 दिनों तक चलता है। कहीं गरबा होता है तो कहीं उपहार बांटे जाते हैं और कहीं दीप जलाए जाते हैं। रावण और उसके भाइयों मेघनाद और कुम्भकरण के पुतले तो हर जगह जलाए जाते हैं लेकिन कहीं कोई राजनेता तीर छोड़ता है, कहीं भव्य शोभायात्रा के साथ ऐसा किया जाता है। मुख्य मान्यता है कि दशहरा राम कथा से जुड़ा हुआ आयोजन है। कहते हैं कि दस सिरों वाले लंकापति रावण को भगवान राम ने उसके बुरे कर्मो की सजा उसका वध करके दी थी। साथ ही मेघनाद और कुम्भकरण जैसे अत्याचारियों का भी सर्वनाश किया था। यही वजह है कि आज भी रावण के साथ मेघनाद और कुम्भकरण के विशाल पुतलों को जलाया जाता है। हर जगह का दशहरा अपने आप में निराला है। कोलकाता, कोटा, बस्तर, कुल्लू, अल्मोड़ा, मुंबई, मैसूर और दिल्ली जैसे नगरों में दशहरा उत्सव की भव्यता देखते ही बनती है।
अ मैसूर का दशहरा मैसूर का दशहरा अपनी भव्यता के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध है। माना जाता है कि नवरात्रि उत्सव के आखिरी दिन मैसूर के राजा अपनी प्रजा से मिलने जाते थे और उनके द्वारा दिए गए उपहारों को प्रेम पूर्वक स्वीकार करते थे। यहां दशहरा उत्सव मनाने के साथ-साथ महाभारत काल से जुड़े शमी वृक्ष की भी पूजा की जाती है। उस वृक्ष की पत्तियों को स्वर्ण मानकर सभी लोगों में वितरित किया जाता है। इस वृक्ष को लेकर मान्यता है कि अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने अपने शस्त्रों को यहीं सुरक्षित किया था इसलिए यह वृक्ष न्याय और सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है। मैसूर वासियों का मत है कि जिस प्रकार पांडवों ने अपने धर्म की रक्षा की उसी प्रकार यह वृक्ष भी उनकी रक्षा करेगा। मैसूर में दशहरे पर एक विशाल प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। चंदन की लकड़ी से बनी कलाकृतियां, अगरबत्तियां और रेशमी साड़ियों के लिए लोग वर्ष भर इस प्रदर्शनी का बेसब्री से इन्तजार करते हैं। दशहरे के अवसर पर मैसूर महल को सजाया जाता है और करीब पांच किलोमीटर लम्बी शोभायात्रा निकाली जाती है। इस दौरान आतिशबाजी का कार्यक्रम देखते ही बनता है, लेकिन कर्नाटक तथा दूसरे द्रविड़ प्रदेशों में रावण दहन की परम्परा नहीं है।
दिल्ली का दशहरा रावण और उसके पुतला दहन की भव्यता को देखना हो तो दिल्ली के दशहरे को देखना चाहिए। दिल्ली में लगभग 300 रामलीलाएं होती हैं। इनमें से 20 बड़ी रामलीलाएं हैं,जिनका बजट दो से पांच करोड़ का तक का होता है। कमान से छूटे तीरों से आग निकलना, लक्ष्मण रेखा पार करने पर रेखा से आग निकलना, वायु मार्ग से हनुमान का संजीवनी बूटी लाना, लक्ष्मण-मेघनाद का जमीन से 45 फिट ऊंचाई पर मायावी युद्ध, सीता हरण के लिए हेलीकॉप्टर का प्रयोग, 90 मीटर के तीन तल वाले मंच, रावण के भव्य पुतले का निर्माण, कुं भकर्ण को क्रेन से उठाने की व्यवस्था, लीला के प्रवेश द्वारों का भव्य निर्माण आदि इस आयोजन में गजब का रोमांच भर देते हैं। राम बारात में शामिल स्वचालित झंकियों ने दिल्ली की रामलीला को पूरे भारत में प्रसिद्ध कर दिया है। रामलीला मैदान में प्रतिवर्ष होने वाले दशहरा उत्सव की ख्याति इस कारण भी है कि इसमें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री सहित कई केन्द्रीय मंत्री और राजनेता भाग लेते हैं।
कोलकाता का दशहरा कोलकाता में दशहरा का उत्सव मुख्यत: नवरात्रि पर्व और शक्तिपूजा से जुड़ा है। वैसे भी रामकथा के अनुसार यह मान्यता है कि राम ने रावण के वध के पूर्व देवी की उपासना की थी। दुर्गापूजा बंगालियों का सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है। यहां दशहरा मुख्यत: पांच दिनों तक मनाया जाता है। देवियों को भव्य पंडालों में रखा जाता है। साल भर अपनों से दूर रहने वाले लोग विजयादशमी के दिन घर जरूर आते हैं। बच्चे बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं और बड़े भी प्रेम भाव से उनका आलिंगन करते हैं। इस प्रथा को बंगाली में ‘कोलाकुली’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त पास पड़ोस वालों को शुभो विजया की बधाई दी जाती है। विजयादशमी के दिन देवियों को नदी में विसजिर्त करने से पहले महिलाओं द्वारा ‘सिंदूर खेला’ नामक प्रथा का प्रचलन है। वे एक पंडाल में इकट्ठा होकर देवियों की पूजा अर्चना के बाद एक दूसरे की मांग में सिंदूर भरकर विवाह सम्बन्धों की प्रगाढ़ता की प्रार्थना करती हैं। इस उत्सव पर बनने वाले व्यंजनों में मालपुआ और निमकी खासतौर पर लोकप्रिय हैं।
अल्मोड़ा का दशहरा अल्मोड़ा अत्यंत सुन्दर व सुरम्य पर्वतीय स्थलों में से एक है। यदि एक बार अल्मोड़ा के आसपास की नैसर्गिक सुन्दरता एवं दशहरा महोत्सव को देख लिया तो निश्चित ही मन बार-बार यहां आने को करेगा। अल्मोड़ा का दशहरा महोत्सव साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक भी है। यूं तो अल्मोड़ा में राक्षस परिवार के पुतले देश के अन्य भागों की तरह ही बनाये जाते हैं, लेकिन अन्य स्थानों की अपेक्षा यहां के पुतले कलात्मकता और भव्यता के साथ उन कलाकारों के द्वारा निर्मित होते हैं जो किसी भी तरह से पेशेवर नहीं हैं। ये कलाकार हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई अथवा किसी भी धर्म, सम्प्रदाय के हो सकते हैं। अल्मोड़ा में दशहरा महोत्सव की तैयारी एक माह पहले से ही शुरू हो जाती है। बच्चों भी अपने लिए छोटे-छोटे पुतले लेकर आते हैं। कई जगह इन पुतलों को टेसू कहा जाता है। वहीं दशहरा आयोजन में अल्मोड़ा का हर मोहल्ला रावण परिवार के पुतलों के निर्माण के लिए सक्रिय हो जाता है। इन पुतलों की नयनाभिराम छवि, आंख, नाक तथा विशिष्ट अवयवों को अनुपात देने में यहां के शिल्पी अपनी समस्त कला झोंक देते हैं। दशहरे के दिन दोपहर से यह पुतले अपने निर्माण स्थल से निकलते हैं। पुतलों की यात्रा यहां के मशहूर लाला बाजार से एक जुलूस के रूप में प्रारंभ होती है। इन पुतलों में रावण, मेघनाद, कुम्भकर्ण, ताड़का, सुबाहु, त्रिशरा, अक्षयकुमार, मकराक्ष, खरदूषण, नौरा आदि के पुतले अनोखी आभा लिए होते हैं। पहले यह पुतले शहर में जुलूस के रूप में नहीं आते थे। एक दशक पूर्व अख्तर भारती जैसे कलाकारों ने मेघनाद के पुतले से इस उत्सव को जो दिशा दी उसी का परिणाम है कि आज एक दजर्न से ज्यादा पुतलों का जुलूस निकाला जाता है।
कुल्लू का दशहरा कुल्लू में दशहरा देवताओं के मिलन के रूप में मनाया जाता है।
माना जाता है कि देवता जमलू ने कई देवताओं को एक साथ टोकरी में उठाकर किन्नर कैलाश की ओर से कुल्लू पहुंचाया था।
तभी से कुल्लू को देवताओं की भूमि माना जाता है। देश के दूसरे भागों में जब विजयादशमी समाप्त हो जाती है, तब कुल्लू में इसका आयोजन शुरू होता है। दशमी से पूर्णिमा तक कुल्लू के ढाल मैदान में देवता साज-सज्जा और गाजे-बाजे के साथ लाए जाते हैं। लोगों की परंपरागत वेशभूषा और नृत्य के कारण कुल्लू का दशहरा बहुत मनमोहक होता है। मेले का मुख्य आकर्षण रघुनाथ जी की यात्रा होती है, जिसमें राजपरिवार के सदस्य राजसी वेशभूषा में सम्मिलित होते हैं। इस अवसर पर द्वापर युग की राक्षसी हिडिंबा के प्रतीक की उपस्थिति भी अनिवार्य मानी जाती है। उनके बिना रघुनाथ जी की यात्रा सम्पन्न नहीं होती है।
यात्रा के दौरान कृत्रिम रूप से बनाई लंका को जलाकर दशहरे को सम्पन्न किया जाता है और लौटते समय रघुनाथ जी के साथ सीता जी को भी विराजमान किया जाता है। इस प्रकार यह पर्व राम द्वारा लंका से सीता को छुड़ाकर लाने का प्रतीक माना जाता है।
बस्तर दशहरा की अनूठी परम्परा छत्तीसगढ़ के बस्तर का दशहरा का अपना ही रंग है। बस्तर में 75 दिन तक दशहरे का उत्सव मनाया जाता है। आस्था है कि वनवास के दौरान भगवान राम ने 14 दिन बस्तर में व्यतीत किए थे। यहां दशहरा पर्व के जुलूस में मां दंतेश्वरी देवी के छत्र की अनूठी रथयात्रा निकलती है । शोभायात्रा का मुख्य आकर्षण द्वितलीय रथ होता है। इस रथ को आदिवासी ही खींचते हैं। रथ को तैयार करने की लगभग 598 वर्षों से एक अनूठी पंरपरा है।
इसे बनाने का काम सिर्फ संवरा जाति के लोग ही करते हैं। इस जाति की यह परंपरा काफी समय से है। यह रथ काफी बड़ा होता है और कई तरह की चीजों से सुसज्जित होता है। दशहरा पर लाखों की संख्या में लोगों की भीड़ यहां उमड़ती है। ढोल नगाड़े ताशे बजाकर पूरे माहौल को ऐसा बना दिया जाता है कि मानो कोई विजयश्री प्राप्त कर लौट रहा हो। छत्तीसगढ में रथ बनाने वाली संवरा जाति के लोग अब आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं।
आज भी इन्हें रथ के मेहनताना के नाम पर मामूली राशि,एक बकरा और कुछ वस्तुएं ही मिलती हैं। छत्तीसगढ़ पर्यटन विभाग इस मौके पर निकलने वाली शोभायात्रा में एक हजार दीपों को प्रज्ज्वलित कराता है।
कोटा का दशहरा मेला कोटा का दशहरा भी देश भर में अपनी अलग पहचान रखता है। इस अवसर पर एक विशाल मेला लगता है, जो अपनी भव्यता और व्यापक जनभागीदारी के कारण देश भर में प्रसिद्ध है। दशहरा तक मेले की धूम शहर में रहती है। राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत यहां के मेले में अलग ही समां बांधती है।
कोटा राजस्थान के दक्षिणी भाग के हाड़ौती क्षेत्र में स्थित है।
चम्बल के पूर्वी किनारे पर स्थित कोटा में दशहरे से काफी पहले ही तैयारियां प्रारम्भ होने लगती हैं। रावण और उसके प्रमुख सेनानियों, मेघनाद व कुम्भकर्ण के विशाल पुतलों के निर्माण की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। दशहरा से दो महीने पहले ही पुतलों का निर्माण कार्य होने लगता है। दूर- दराज से पुतले बनाने के कारीगर यहां जुटने लगते हैं। पुतलों को भव्य बनाया जाता है।
कोटा का रावण दहन देशभर में प्रसिद्ध है। रावण, मेघनाद, कुम्भकर्ण के विशाल पुतले रंगीन कागज और बांस की खपच्चियों से तैयार होते हैं। इनमें बड़ी मात्रा में पटाखे और बारूद भरा रहता है। राम के स्वरूप रावण के पुतले की नाभि में तीर मारकर उसका दहन करते हैं। दशहरा के साथ भव्य रामलीला का आयोजन भी चलता है।
दशहरे पर जहां पूरा देश रावण का पुतला जलाकर बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न मनाता है, वहीं एक जगह ऐसी भी है, जहां मातम और सन्नाटा पसरा रहता है। लोगों पर दशहरे का खौफ छाया रहता है क्योंकि यहां आज तक जिसने भी दशहरा मनाने की कोशिश की वह दूसरा दशहरा नहीं देख पाया, उसकी मौत हो गई। हिमाचल प्रदेश का बैजनाथ अपने प्राचीन शिव मंदिर के कारण पूरे साल सैलानियों की चहल-पहल से गुलजार रहता है। दशहरे के दिन इस पूरे शहर में वीरानी छाई रहती है। मान्यता है कि यहां पर रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तप करते हुए अपने दस शीश अर्पित कर दिए थे। इलाके के लोगों की माने तो जिसने भी दशहरा मनाने की कोशिश की वह अगला दशहरा नहीं देख पाया। खास बात यह भी है कि पूरे शहर में एक भी सुनार की दुकान नहीं है। अगर दुकान खोली भी गई तो वह जलकर खाक हो गई। इलाके के राम दित्ता ने बताया कि जिस किसी ने भी रामलीला या दशहरा मनाने की कोशिश की उसकी मौत हो गयी। लोगों में धारणा बन गयी की ऐसा रावण की नाराजगी के कारण हुआ।
बैजनाथ मंदिर के पुजारी के मुताबिक यहां पर रावण ने शिव को अपने दस शीश भेंट किये थे। तब से इसे रावण की तपस्थली के तौर पर जाना जाता है और उसके सम्मान में ही दशहरा नहीं मनाया जाता। यहां तक की सोने की लंका के चक्कर में शहर में कोई सोने की दुकान तक नहीं है। उन्होंने बताया कि बैजनाथ में रावण का एक मंदिर भी है, जहां उसके पैरों के चिह्न हैं और रावणोश्वर लिंग भी है।
हालांकि यह हिस्सा काफी खराब हो चुका है।
जहां आज भी नाराज है रावण महाराष्ट्र में दशहरा दशहरा महाराष्ट्र में सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। यहां भी मैसूर की तरह ही सायंकाल के समय सभी ग्रामीणजन सुंदर-सुंदर नये वस्त्र धारण कर गांव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के पत्ताें को अपने गांव लाते हैं। फिर उन पत्ताें का परस्पर आदान-प्रदान करके बड़े-बूढ़ों के पांव छू कर आशीर्वाद लेते हैं। इस अवसर पर समूचे गांव में भक्ति रस में डूबे लोकगीतों को गाया जाता है।
दक्षिण में दशहरा तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश तथा कर्नाटक में दशहरा नौ दिनों तक चलता है, जिसमें लोग लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा करते हैं। पहले तीन दिन लक्ष्मी का पूजन होता है। अगले तीन दिन सरस्वती की अर्चना की जाती है और अंतिम दिन देवी दुर्गा की स्तुति की जाती है। पूजा स्थल को दीपकों से सजाया जाता है। दशहरा यहां के बच्चों के लिए खासतौर पर शिक्षा या कला संबंधी कोई नया काम सीखने के लिए शुभ माना जाता है।
दशहरे की धूम देश की विविधता पर्वो को भी क्षेत्रीय रंगों में भिगोकर एक अलग पहचान देती है। विजयादशमी अर्थात दशहरे के साथ भी ऐसा ही है। रामकथा से जुड़े इस पर्व की धूम देशभर में होती है। असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई की विजय के उत्सव के रूप में यह पर्व मनाया जाता है। देश के विभिन्न हिस्सों में इसकी विभिन्नता उन्हें विशिष्ट भी बनाती है। यही वजह है कि देश के ज्यादातर हिस्सों में जहां इसे रावण,मेघनाद एवं कुम्भकरण के पुतले के दहन के साथ मनाया जाता है, वहीं द्रविड़ प्रदेशों में रावण दहन नहीं किया जाता। इस पर्व के साथ कई दूसरी कथाएं और मान्यताएं भी जुड़ी हैं। इस उत्सव को कृषि, शस्त्र पूजन, अपराजिता देवी और नीलकण्ठ पक्षी से भी जोड़ा जाता है। भिन्नता और भव्यता की कसौटी पर खास पहचान बनाने वाले देश के मुख्य दशहरा आयोजनों पर आधारित यह रिपोर्ट.. गर हमारे देश में कोस-कोस पर पानी और चार कोस पर बानी बदल जाती हो तो हमारे पर्व इन बदलावों से कैसे अछूते रह सकते हैं? विजयादशमी अर्थात दशहरा का पर्व भी अपने मूल में एक मुख्य भावना को लिए होते हुए भी देश के अलग- अलग हिस्सों में अलग-अलग रूप पा जाता है। यह विभिन्नता ही उसे विशिष्ट बनाती है। अगर आपने कुल्लू का दशहरा देखा है तो आप यह नहीं कह सकते कि आप मैसूर के दशहरे को देखने के आनन्द का अनुभव कर सकते हैं। वास्तव में देश के विभिन्न हिस्सों में दशहरा के अलग ठाठ, अलग रंग हैं। तभी तो यह कहीं 10 दिन तक मनाया जाता है तो कहीं इसका आयोजन 75 दिनों तक चलता है। कहीं गरबा होता है तो कहीं उपहार बांटे जाते हैं और कहीं दीप जलाए जाते हैं। रावण और उसके भाइयों मेघनाद और कुम्भकरण के पुतले तो हर जगह जलाए जाते हैं लेकिन कहीं कोई राजनेता तीर छोड़ता है, कहीं भव्य शोभायात्रा के साथ ऐसा किया जाता है। मुख्य मान्यता है कि दशहरा राम कथा से जुड़ा हुआ आयोजन है। कहते हैं कि दस सिरों वाले लंकापति रावण को भगवान राम ने उसके बुरे कर्मो की सजा उसका वध करके दी थी। साथ ही मेघनाद और कुम्भकरण जैसे अत्याचारियों का भी सर्वनाश किया था। यही वजह है कि आज भी रावण के साथ मेघनाद और कुम्भकरण के विशाल पुतलों को जलाया जाता है। हर जगह का दशहरा अपने आप में निराला है। कोलकाता, कोटा, बस्तर, कुल्लू, अल्मोड़ा, मुंबई, मैसूर और दिल्ली जैसे नगरों में दशहरा उत्सव की भव्यता देखते ही बनती है।
अ मैसूर का दशहरा मैसूर का दशहरा अपनी भव्यता के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध है। माना जाता है कि नवरात्रि उत्सव के आखिरी दिन मैसूर के राजा अपनी प्रजा से मिलने जाते थे और उनके द्वारा दिए गए उपहारों को प्रेम पूर्वक स्वीकार करते थे। यहां दशहरा उत्सव मनाने के साथ-साथ महाभारत काल से जुड़े शमी वृक्ष की भी पूजा की जाती है। उस वृक्ष की पत्तियों को स्वर्ण मानकर सभी लोगों में वितरित किया जाता है। इस वृक्ष को लेकर मान्यता है कि अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने अपने शस्त्रों को यहीं सुरक्षित किया था इसलिए यह वृक्ष न्याय और सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है। मैसूर वासियों का मत है कि जिस प्रकार पांडवों ने अपने धर्म की रक्षा की उसी प्रकार यह वृक्ष भी उनकी रक्षा करेगा। मैसूर में दशहरे पर एक विशाल प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। चंदन की लकड़ी से बनी कलाकृतियां, अगरबत्तियां और रेशमी साड़ियों के लिए लोग वर्ष भर इस प्रदर्शनी का बेसब्री से इन्तजार करते हैं। दशहरे के अवसर पर मैसूर महल को सजाया जाता है और करीब पांच किलोमीटर लम्बी शोभायात्रा निकाली जाती है। इस दौरान आतिशबाजी का कार्यक्रम देखते ही बनता है, लेकिन कर्नाटक तथा दूसरे द्रविड़ प्रदेशों में रावण दहन की परम्परा नहीं है।
दिल्ली का दशहरा रावण और उसके पुतला दहन की भव्यता को देखना हो तो दिल्ली के दशहरे को देखना चाहिए। दिल्ली में लगभग 300 रामलीलाएं होती हैं। इनमें से 20 बड़ी रामलीलाएं हैं,जिनका बजट दो से पांच करोड़ का तक का होता है। कमान से छूटे तीरों से आग निकलना, लक्ष्मण रेखा पार करने पर रेखा से आग निकलना, वायु मार्ग से हनुमान का संजीवनी बूटी लाना, लक्ष्मण-मेघनाद का जमीन से 45 फिट ऊंचाई पर मायावी युद्ध, सीता हरण के लिए हेलीकॉप्टर का प्रयोग, 90 मीटर के तीन तल वाले मंच, रावण के भव्य पुतले का निर्माण, कुं भकर्ण को क्रेन से उठाने की व्यवस्था, लीला के प्रवेश द्वारों का भव्य निर्माण आदि इस आयोजन में गजब का रोमांच भर देते हैं। राम बारात में शामिल स्वचालित झंकियों ने दिल्ली की रामलीला को पूरे भारत में प्रसिद्ध कर दिया है। रामलीला मैदान में प्रतिवर्ष होने वाले दशहरा उत्सव की ख्याति इस कारण भी है कि इसमें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री सहित कई केन्द्रीय मंत्री और राजनेता भाग लेते हैं।
कोलकाता का दशहरा कोलकाता में दशहरा का उत्सव मुख्यत: नवरात्रि पर्व और शक्तिपूजा से जुड़ा है। वैसे भी रामकथा के अनुसार यह मान्यता है कि राम ने रावण के वध के पूर्व देवी की उपासना की थी। दुर्गापूजा बंगालियों का सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है। यहां दशहरा मुख्यत: पांच दिनों तक मनाया जाता है। देवियों को भव्य पंडालों में रखा जाता है। साल भर अपनों से दूर रहने वाले लोग विजयादशमी के दिन घर जरूर आते हैं। बच्चे बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं और बड़े भी प्रेम भाव से उनका आलिंगन करते हैं। इस प्रथा को बंगाली में ‘कोलाकुली’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त पास पड़ोस वालों को शुभो विजया की बधाई दी जाती है। विजयादशमी के दिन देवियों को नदी में विसजिर्त करने से पहले महिलाओं द्वारा ‘सिंदूर खेला’ नामक प्रथा का प्रचलन है। वे एक पंडाल में इकट्ठा होकर देवियों की पूजा अर्चना के बाद एक दूसरे की मांग में सिंदूर भरकर विवाह सम्बन्धों की प्रगाढ़ता की प्रार्थना करती हैं। इस उत्सव पर बनने वाले व्यंजनों में मालपुआ और निमकी खासतौर पर लोकप्रिय हैं।
अल्मोड़ा का दशहरा अल्मोड़ा अत्यंत सुन्दर व सुरम्य पर्वतीय स्थलों में से एक है। यदि एक बार अल्मोड़ा के आसपास की नैसर्गिक सुन्दरता एवं दशहरा महोत्सव को देख लिया तो निश्चित ही मन बार-बार यहां आने को करेगा। अल्मोड़ा का दशहरा महोत्सव साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक भी है। यूं तो अल्मोड़ा में राक्षस परिवार के पुतले देश के अन्य भागों की तरह ही बनाये जाते हैं, लेकिन अन्य स्थानों की अपेक्षा यहां के पुतले कलात्मकता और भव्यता के साथ उन कलाकारों के द्वारा निर्मित होते हैं जो किसी भी तरह से पेशेवर नहीं हैं। ये कलाकार हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई अथवा किसी भी धर्म, सम्प्रदाय के हो सकते हैं। अल्मोड़ा में दशहरा महोत्सव की तैयारी एक माह पहले से ही शुरू हो जाती है। बच्चों भी अपने लिए छोटे-छोटे पुतले लेकर आते हैं। कई जगह इन पुतलों को टेसू कहा जाता है। वहीं दशहरा आयोजन में अल्मोड़ा का हर मोहल्ला रावण परिवार के पुतलों के निर्माण के लिए सक्रिय हो जाता है। इन पुतलों की नयनाभिराम छवि, आंख, नाक तथा विशिष्ट अवयवों को अनुपात देने में यहां के शिल्पी अपनी समस्त कला झोंक देते हैं। दशहरे के दिन दोपहर से यह पुतले अपने निर्माण स्थल से निकलते हैं। पुतलों की यात्रा यहां के मशहूर लाला बाजार से एक जुलूस के रूप में प्रारंभ होती है। इन पुतलों में रावण, मेघनाद, कुम्भकर्ण, ताड़का, सुबाहु, त्रिशरा, अक्षयकुमार, मकराक्ष, खरदूषण, नौरा आदि के पुतले अनोखी आभा लिए होते हैं। पहले यह पुतले शहर में जुलूस के रूप में नहीं आते थे। एक दशक पूर्व अख्तर भारती जैसे कलाकारों ने मेघनाद के पुतले से इस उत्सव को जो दिशा दी उसी का परिणाम है कि आज एक दजर्न से ज्यादा पुतलों का जुलूस निकाला जाता है।
कुल्लू का दशहरा कुल्लू में दशहरा देवताओं के मिलन के रूप में मनाया जाता है।
माना जाता है कि देवता जमलू ने कई देवताओं को एक साथ टोकरी में उठाकर किन्नर कैलाश की ओर से कुल्लू पहुंचाया था।
तभी से कुल्लू को देवताओं की भूमि माना जाता है। देश के दूसरे भागों में जब विजयादशमी समाप्त हो जाती है, तब कुल्लू में इसका आयोजन शुरू होता है। दशमी से पूर्णिमा तक कुल्लू के ढाल मैदान में देवता साज-सज्जा और गाजे-बाजे के साथ लाए जाते हैं। लोगों की परंपरागत वेशभूषा और नृत्य के कारण कुल्लू का दशहरा बहुत मनमोहक होता है। मेले का मुख्य आकर्षण रघुनाथ जी की यात्रा होती है, जिसमें राजपरिवार के सदस्य राजसी वेशभूषा में सम्मिलित होते हैं। इस अवसर पर द्वापर युग की राक्षसी हिडिंबा के प्रतीक की उपस्थिति भी अनिवार्य मानी जाती है। उनके बिना रघुनाथ जी की यात्रा सम्पन्न नहीं होती है।
यात्रा के दौरान कृत्रिम रूप से बनाई लंका को जलाकर दशहरे को सम्पन्न किया जाता है और लौटते समय रघुनाथ जी के साथ सीता जी को भी विराजमान किया जाता है। इस प्रकार यह पर्व राम द्वारा लंका से सीता को छुड़ाकर लाने का प्रतीक माना जाता है।
बस्तर दशहरा की अनूठी परम्परा छत्तीसगढ़ के बस्तर का दशहरा का अपना ही रंग है। बस्तर में 75 दिन तक दशहरे का उत्सव मनाया जाता है। आस्था है कि वनवास के दौरान भगवान राम ने 14 दिन बस्तर में व्यतीत किए थे। यहां दशहरा पर्व के जुलूस में मां दंतेश्वरी देवी के छत्र की अनूठी रथयात्रा निकलती है । शोभायात्रा का मुख्य आकर्षण द्वितलीय रथ होता है। इस रथ को आदिवासी ही खींचते हैं। रथ को तैयार करने की लगभग 598 वर्षों से एक अनूठी पंरपरा है।
इसे बनाने का काम सिर्फ संवरा जाति के लोग ही करते हैं। इस जाति की यह परंपरा काफी समय से है। यह रथ काफी बड़ा होता है और कई तरह की चीजों से सुसज्जित होता है। दशहरा पर लाखों की संख्या में लोगों की भीड़ यहां उमड़ती है। ढोल नगाड़े ताशे बजाकर पूरे माहौल को ऐसा बना दिया जाता है कि मानो कोई विजयश्री प्राप्त कर लौट रहा हो। छत्तीसगढ में रथ बनाने वाली संवरा जाति के लोग अब आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं।
आज भी इन्हें रथ के मेहनताना के नाम पर मामूली राशि,एक बकरा और कुछ वस्तुएं ही मिलती हैं। छत्तीसगढ़ पर्यटन विभाग इस मौके पर निकलने वाली शोभायात्रा में एक हजार दीपों को प्रज्ज्वलित कराता है।
कोटा का दशहरा मेला कोटा का दशहरा भी देश भर में अपनी अलग पहचान रखता है। इस अवसर पर एक विशाल मेला लगता है, जो अपनी भव्यता और व्यापक जनभागीदारी के कारण देश भर में प्रसिद्ध है। दशहरा तक मेले की धूम शहर में रहती है। राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत यहां के मेले में अलग ही समां बांधती है।
कोटा राजस्थान के दक्षिणी भाग के हाड़ौती क्षेत्र में स्थित है।
चम्बल के पूर्वी किनारे पर स्थित कोटा में दशहरे से काफी पहले ही तैयारियां प्रारम्भ होने लगती हैं। रावण और उसके प्रमुख सेनानियों, मेघनाद व कुम्भकर्ण के विशाल पुतलों के निर्माण की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। दशहरा से दो महीने पहले ही पुतलों का निर्माण कार्य होने लगता है। दूर- दराज से पुतले बनाने के कारीगर यहां जुटने लगते हैं। पुतलों को भव्य बनाया जाता है।
कोटा का रावण दहन देशभर में प्रसिद्ध है। रावण, मेघनाद, कुम्भकर्ण के विशाल पुतले रंगीन कागज और बांस की खपच्चियों से तैयार होते हैं। इनमें बड़ी मात्रा में पटाखे और बारूद भरा रहता है। राम के स्वरूप रावण के पुतले की नाभि में तीर मारकर उसका दहन करते हैं। दशहरा के साथ भव्य रामलीला का आयोजन भी चलता है।
दशहरे पर जहां पूरा देश रावण का पुतला जलाकर बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न मनाता है, वहीं एक जगह ऐसी भी है, जहां मातम और सन्नाटा पसरा रहता है। लोगों पर दशहरे का खौफ छाया रहता है क्योंकि यहां आज तक जिसने भी दशहरा मनाने की कोशिश की वह दूसरा दशहरा नहीं देख पाया, उसकी मौत हो गई। हिमाचल प्रदेश का बैजनाथ अपने प्राचीन शिव मंदिर के कारण पूरे साल सैलानियों की चहल-पहल से गुलजार रहता है। दशहरे के दिन इस पूरे शहर में वीरानी छाई रहती है। मान्यता है कि यहां पर रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तप करते हुए अपने दस शीश अर्पित कर दिए थे। इलाके के लोगों की माने तो जिसने भी दशहरा मनाने की कोशिश की वह अगला दशहरा नहीं देख पाया। खास बात यह भी है कि पूरे शहर में एक भी सुनार की दुकान नहीं है। अगर दुकान खोली भी गई तो वह जलकर खाक हो गई। इलाके के राम दित्ता ने बताया कि जिस किसी ने भी रामलीला या दशहरा मनाने की कोशिश की उसकी मौत हो गयी। लोगों में धारणा बन गयी की ऐसा रावण की नाराजगी के कारण हुआ।
बैजनाथ मंदिर के पुजारी के मुताबिक यहां पर रावण ने शिव को अपने दस शीश भेंट किये थे। तब से इसे रावण की तपस्थली के तौर पर जाना जाता है और उसके सम्मान में ही दशहरा नहीं मनाया जाता। यहां तक की सोने की लंका के चक्कर में शहर में कोई सोने की दुकान तक नहीं है। उन्होंने बताया कि बैजनाथ में रावण का एक मंदिर भी है, जहां उसके पैरों के चिह्न हैं और रावणोश्वर लिंग भी है।
हालांकि यह हिस्सा काफी खराब हो चुका है।
जहां आज भी नाराज है रावण महाराष्ट्र में दशहरा दशहरा महाराष्ट्र में सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। यहां भी मैसूर की तरह ही सायंकाल के समय सभी ग्रामीणजन सुंदर-सुंदर नये वस्त्र धारण कर गांव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के पत्ताें को अपने गांव लाते हैं। फिर उन पत्ताें का परस्पर आदान-प्रदान करके बड़े-बूढ़ों के पांव छू कर आशीर्वाद लेते हैं। इस अवसर पर समूचे गांव में भक्ति रस में डूबे लोकगीतों को गाया जाता है।
दक्षिण में दशहरा तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश तथा कर्नाटक में दशहरा नौ दिनों तक चलता है, जिसमें लोग लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा करते हैं। पहले तीन दिन लक्ष्मी का पूजन होता है। अगले तीन दिन सरस्वती की अर्चना की जाती है और अंतिम दिन देवी दुर्गा की स्तुति की जाती है। पूजा स्थल को दीपकों से सजाया जाता है। दशहरा यहां के बच्चों के लिए खासतौर पर शिक्षा या कला संबंधी कोई नया काम सीखने के लिए शुभ माना जाता है।
No comments:
Post a Comment