Tuesday, October 15, 2013

नवरात्र : शक्ति आराधना का पर्व

नवरात्र : शक्ति आराधना का पर्व

Posted On October - 6 - 2013
शक्ति उपासना का इतिहास बहुत प्राचीन है। आदिकाल से मानव ने सृष्टि की नियामिका शक्ति को स्वीकार किया है। आदिग्रन्थ वेद इसके प्रमाण हैं। आद्यग्रन्थ ऋग्वेद में जहां एक ओर परमतत्व के पुरुष रूप की उपासना की गई है, वहीं दूसरी ओर उसके स्त्रीलिंग की उपासना भी मिलती है। शक्ति उपासना का मूल आधार आद्यग्रन्थ ऋग्वेद की द्यावा पृथ्वी की कल्पना है, जिसमें पृथ्वी स्त्री मानी गई है और आकाश पुरुष। इन दोनों के तादात्म्य की चर्चा ऋग्वेद में अनेक बार की गई है। युग्म रूप में इनका अनेक सूत्रों में आह्वान हुआ है, जिनमें इन्हें माता-पिता कहा गया है। आर्यों के एक वर्ग ने जहां पितृसत्ता की खोज और उपासना की है, वहीं दूसरे वर्ग ने मातृसत्ता की खोज करके उसकी उपासना एवं महत्व का मार्ग निर्दिष्ट किया है। मनु ने सहस्र पिताओं की तुलना में एक माता के गौरव को अधिक स्वीकार किया है। माता के प्रति आर्य जाति की इस आस्था ने ही शक्ति पूजा को जन्म दिया। इसी भावना से प्रेरित होकर ऋग्वैदिक काल में देवताओं की पूजा के साथ-साथ देवियों की पूजा के संकेत भी मिलते हैं। ऋग्वेद में पृथ्वी, रात्रि, वाक्, सरस्वती, पुरंध्रि, धिष्णा, इडा, वृहद्विवा, राका, सिनीवाली, पृश्नि, सरण्यू, इन्द्राणी, वरुणानी, अग्नायी, रुद्राणी, अश्विनी और श्रद्धा आदि देवियों का उल्लेख है। ऋग्वेद के दशम् मण्डल के एक सूक्त में वाक् यानी वाणी की देवी के रूप में स्तुति की गई है। इसमें देवी की महिमा का बहुत ही उदात्त वर्णन है। तद्नुसार वाक्, ही समस्त देव शक्तियों की मूल है। धर्मसूत्रों में भी शक्ति तत्व को स्वीकार किया गया है। धर्मसूत्रों के समान ही गृह्यसूत्रों में शिवपत्नी का उल्लेख है। गृह्यसूत्रों में शिवमूर्ति की उपासना के साथ-साथ देवी पूजन की विधियां बतायी गई हैं। इसमें प्रथम बार उनको दुर्गा नाम दिया गया है। रामायण में देवी के दुर्गा नाम का उल्लेख है। एक स्थल पर उन्हें रुद्राणी कहा गया है। अनेक स्थलों पर उन्हें अन्य देवताओं से भी उत्कृष्ट माना गया है। देवतागण भी उनके सामने आंख उठाने का साहस तक नहीं कर सकते।
शक्ति का पूर्ण विकसित रूप शाक्त पुराणों में मिलता है। देवी उपपुराण प्राचीन एवं प्रमुखतम शाक्त उपपुराणों में से एक है। इसमें मुख्यत: देवी का चित्रण युद्धरत यानी रक्षा करने वाली देवी के रूप में हुआ है। ‘कालिका उप पुराण’ भी शाक्त पुराण है, जिसमें कामाख्या को प्रधान देवी माना गया है। तद्नुसार कामाख्या ही प्रधान देवी है जो वास्तव में विभिन्न कार्यों के सम्पादन के लिए नाना रूप धारण करती है। आदि शक्ति के रूप में देवी के स्वरूप का वर्णन मार्कण्डेय पुराणोक्त दुर्गा सप्तशती में मिलता है। श्रीमद् देवीभागवत् पुराण शाक्तमत का स्वतंत्र पुराण है जिसमें देवी को विश्व की नियामिका अधिष्ठात्री चैतन्यमयी शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। ‘सर्वश्वाल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम्’ यह श्लोकाद्र्ध ही देवी भागवत् का मूल वचन है। इसके द्वारा ही देवी भागवत् में वर्णित आद्याशक्ति के वास्तविक स्वरूप के दर्शन होते हैं। स्पष्ट है कि देवी उपासना बहुत प्राचीन है जिसके उदभव सूत्र आद्यग्रन्थ ऋग्वेद के मंत्रों में उपलब्ध होते हैं। शक्ति उपासना का बीजारोपण वेदों से ही हो चुका था। वैदिक युग से प्रारम्भ होकर प्रत्येक युग में शक्ति उपासना प्रचलित थी। शक्तिवाद की यह परम्परा अविछिन्न है।
शक्ति की आराधना का, वंदना का मुख्य स्त्रोत वैदिक साहित्य है। यजुर्वेद में दुर्गा अम्बिका के नाम से तो पुराणों में और महाकाव्यों में शक्ति के रूप में जानी गई है। शक्ति को स्त्री रूपा माना गया है और देवताओं की सहायिका मानी गई है। इसके अतिरिक्त इन्हें जगतजननी, सृष्टिकर्ता आदि की भी उपमा दी गई है। दुर्गा सप्तशती में पहली बार दुर्गा के शक्ति रूप की उपासना की गई है, जिसमें नारीत्व की महिमा का वर्णन है। दुर्गा सप्तशती के अनुसार दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था। दुर्गा का आविर्भाव विष्णु तथा रुद्र के क्रोध से हुआ। इस देवी के शरीर में सभी देवताओं का वास है। बौद्धसिद्धों तथा तांत्रिकों की देवी उग्रतारा, प्रज्ञापरामिता तथा महामुद्रा में शक्ति के रूप में देवी दुर्गा की ही कल्पना है। शक्ति की उपासना हमारी भारतीय संस्कृति का मूल है। भारतीय संस्कृति में उपासना की जो पद्धति है, वैसी किसी भी अन्य धर्म में उपलब्ध नहीं है। भारतीय संस्कृति आदि संस्कृति है। दुनिया के अधिकतर देश जब अज्ञानता के अंधकार में भटक रहे थे, तब इसी संस्कृति ने सभ्यता और संस्कृति के दीप जलाए। इस संस्कृति में शक्ति उपासना का सर्वाधिक महत्व है। शक्ति विनाशकारी ताकतों के नाश के लिए बेहद जरूरी है। नवरात्रि का यह पर्व विशेषकर आदि शक्ति की पूजा के लिए है, जिसे मां दुर्गा के नाम से पुकारा जाता है। दुर्गा शक्ति की अधिष्ठात्री है। इसे नकारा नहीं जा सकता। दुर्गा का अर्थ है राक्षसों का विनाश करने वाली अर्थात बुराई को मिटाने वाली शक्ति। दुर्गा की दस शक्तिशाली भुजायें, सिंह की सवारी और असुर की छाती को भेदता उनका भाला उस शक्ति का ही तो प्रतीक है। दुर्गा के विभिन्न रूप हैं और इनके लिए 108 नामों का उल्लेख है। इनमें कात्यायनी, चंडिका, अम्बा, गौरी, कपालिनी, चामुण्डा, वैष्णो देवी, काली, उमा, भवानी, छिन्नमस्तिका, सुन्दरी और कमला आदि प्रमुख हैं।
दुर्गा के इन चरित्रों का मनन करने के बाद हमें यही शिक्षा मिलती है कि सोई हुई शक्ति को बिना जाग्रत किए किसी भी महत्वपूर्ण काम में सफलता प्राप्ति असंभव है। हमेशा सक्रिय नहीं रहने से हमारी इंद्रियां मलिन होकर ‘मधु कैटभ’ जैसी आत्मघाती पाशविक शक्तियों को जन्म देती हैं, जिनका संहार भगवती महादेवी द्वारा प्रदत्त बुद्घि शक्ति के बिना असंभव है। दुर्गा का चरित्र यह बताता है कि अपनी शक्ति चाहे कितनी भी प्रबल क्यों न हो, अकेले वह कुछ भी नहीं कर सकती। अगर ऐसी ही अनेक शक्तियां एक साथ मिलकर आसुरी शक्तियों का, प्रवृत्तियों का विरोध करें तो विजय अवश्यंभावी है। वर्तमान में दुर्गा पूजा काफी हद तक सर्वत्र प्रासंगिक है। चैत्र तथा शरद माह के नौ दिन जो कि नवरात्र कहे जाते हैं, शक्ति उपासना के विशिष्ट पर्व माने जाते हैं। सच तो यह है कि नवरात्र दुर्गा मां के शक्ति स्वरूप का आराधना पर्व है । यह सर्वत्र बड़े धूमधाम एवं उत्साह के साथ मनाये जाते हैं।

देवी उपासना का विधान

नवरात्र का समय परिवर्तन का ऐसा समय होता है जिसमें शरीर-मन की बढ़ी संवेदनशीलता को मर्यादित जीवन और साधना द्वारा हम आत्म विकास में नियोजित कर सकते हैं। नवरात्रि के नौ दिन जीवन साधने की कला के दिन हैं ताकि जीवन सार्थक हो सके। नवरात्रि में भगवती दुर्गा की विधिवत् पूजा करने वाले व्यक्ति की कामनाएं शीघ्र पूरी होती हैं। वर्ष भर में दो प्रमुख गुप्त और दो प्रकट नवरात्रि का उल्लेख है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी पर्यंत।
आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी पर्यंत।
आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी पर्यंत।
माघ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी पर्यंत।
इनमें से चैत्र व आश्विन के महीने की नवरात्र की विशेष महिमा बताई गई है। नवरात्र का रात्रि से कोई संम्बंध नहीं है। नवरात्रि से नौ तिथियों में भगवती का समन्वित उपासनापरक अर्थ ग्रहण किया जाता है। उपासना हेतु प्रतिपदा के दिन मंडप आदि तैयार कर स्थापना करनी चाहिए। दक्षिणमुखी शुभत्व, पूर्वाभिमुखी विजय व पश्चिमाभिमुखी प्रतिमा कामना सिद्धि वाली होती है। जबकि उत्तराभिमुखी प्रतिमा से शुभत्व का नाश होता है। अत: उत्तराभिमुखी प्रतिमा कभी न रखें। प्रतिमा के अभाव में ‘ओउम् ऐं ह्वीं क्लीं चामुण्डाये विच्चे’ इस मंत्र को शास्त्र विहित धातु में खुदवाकर यंत्र बनाएं तथा उसी की विधिवत् पूजा करें।
भगवती दुर्गा की पूजा वैदिक काल से चली आ रही है। विभिन्न युगों में विविध रूपों को धारण करने वाली भगवती दुर्गा के अवतरण का मुख्य उद्देश्य समाज व राष्ट्र को अव्यवस्थित करने वाली आसुरी शक्तियों का दमन कर प्रजा के हृदय में शम, दम, दया, शुचिता, धैर्य, विद्या, बुद्धि, क्षमा और अक्रोध रूपी धर्म को धारण कराना है। वे प्रसन्न हों तो समस्त दुर्गतियां टल जाती हैं। यद्यपि भारत में अनेक देवताओं की उपासना की जाती है किंतु कलियुग में भगवती दुर्गा या चंडी कहें व श्रीगणेश की उपासना शीघ्र फलदायी होने के कारण बहुधा प्रचलित है। कहा भी गया है-’कलौ चण्डी विनायकौ।’ कलिकाल के आरंभ से पहले ,द्वापर के अंत में ही भगवती योगमाया दुष्ट कंस के हाथोंसे छूटकर भगवान की सहायता हेतु और कलिकाल में भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए विविध रूपों व नामों को धारण कर स्थान-स्थान पर विराजित हो गईं-श्रीमद्भागवत् के खण्ड 10/4/13 में वर्णित है-
इति प्रभाष्य तं देवी माया भगवती भुवि।
बहुनामानिकेतेषु बहुनामा बभूव ह।।
तात्पर्य यह कि एक दुर्गा के पूजन से ही सभी देवताओं के पूजन की सिद्धि तथा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। कारण वही परमात्म शक्ति है। देवी उपनिषद में देवताओं ने अतुल तेजस्विनी भगवती को देखकर आश्चर्य से पूछा कि -’का असि त्वं’ अर्थात तुम कौन हो! तब देवी ने कहा कि—अहं   ब्रह्म स्वरूपिणी। विज्ञानाविज्ञानेेहम्। मैं ही ब्रह्म स्वरूपिणी हूं, मैं ही विज्ञान और अविज्ञान हूं। कूर्म पुराण के अनुसार जिसके द्वारा यह सृष्टि चक्र निरंतर चलता है, संपूर्ण विश्व जिसके प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है, वह एक जगन्मयी भगवती दुर्गा ही हैं। यही दुर्गा विविध नामों और रूपों में भक्तों का कल्याण करने व उन पर अनुग्रह करने के लिए साक्षात् विराजित हैं।

महालया का महत्व

महालया का तात्पर्य है मां कात्यायनी की आगमन भेरी! हमारे यहां आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस्या का दुर्गा पूजा में विशेष महत्व है। दुर्गा पूजा की पूर्व संध्या पर महालया की परंपरा है। इस दिन दुर्गा सप्तशती पर एक विशेष आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर देवी की आराधना, दुर्गा पूजन की मूलकथा का मंचन किया जाता है और भक्ति गीत गाये जाते हैं। बांसुरी और संगीत की स्वरलहरी के मध्य देवी की आराधना के स्वर स्वप्नमय वातावरण में छाते चले जाते हैं । ‘या देवी सर्वभूतेषु’ की मधुरिम आवाज से समूचे वातावरण को ओतप्रोत करती देवी की मंगल आगमन भेरी महालया भक्तजनों के मनप्राण में एक अजीब सा स्पंदन जगा जाती है। सात सौ श्लोकों वाले ग्रंथ दुर्गा सप्तशती का महालया के रूप में पाठ समस्तजनों को मंत्रमुग्ध कर देता है। इसमें न केवल देवी की, बल्कि जीवन को उत्प्रेरित और संचालित करने वाले सभी तत्वों की आराधना है। देवी दुर्गा एकता और ब्रह्मशक्ति की प्रतीक हैं। वह स्वयं कहती हैं—मैं वेद भी हूं, अवेद भी। मैं पैदा भी हुई हूं और नहीं भी हुई हूं। देवी की आराधना करते हुए देवता उससे रूप, यश और शत्रु पर विजय की याचना करते हैं—रूपं देहि, जय देहि, यशो देहि द्विषो जहि।
विभिन्न देवताओं की सम्मिलित शक्ति से दुर्गा का पैदा होना दरअसल हमें इस बात की प्रेरणा देता है कि समवेत शक्ति से बड़ी से बड़ी आसुरी शक्ति अथवा संकट पर विजय पायी जा सकती है। देवी की स्तुति में ऋषिगण और देवता कहते हैं कि—या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम:।। अर्थात जो देवी सभी प्राणियों में दया के रूप में विद्यमान है, हम उन्हें बारम्बार नमस्कार करते हैं। इसी प्रकार क्षमा, क्षुधा, निद्रा, मातृ और कर्मरूपी देवी की उपासना की गई है। सच तो यह है कि महालया और कुछ नहीं, बल्कि हमें इस बात का संदेश देता है कि हम अपने सद्गुणों को जगायें। यही सच्चे देवत्व की उपासना है और यही महालया का संदेश भी।

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